बिस्तर से उतरती है
डगमगाते पैरों की मानिंद
लेती है टेक
आँख खुलने की सच्चाई
आईने पर पसर जाती है
और
रौशनदान से
सूरज की पेशी
पिता की अदालत में
जिंदगी भर देता है
और
एक एक कर
बेपरवाह होने की वजह से
सिमट जाती है
मेरी उम्मीद
माँ की बाँहों में
जो कि
पहली साँस से अनवरत
मुझमे जान फूंकती रही है
और फिर
माँ की हँसी की डोर थामे
उड़ चढ़ता हूँ मैं
आसमान में
और ऊँचा और ऊँचा
उस पतंग की तरह
जिसकी जिंदगी शाम होने पर भी
आसमान से नहीं उतरती
बहुत सुंदर शब्द योजना, भाव भी। उंचाइयों को छुएं।
जवाब देंहटाएंखूबसूरत भाव!
जवाब देंहटाएंआशीष
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पहला ख़ुमार और फिर उतरा बुखार!!!
बहुत अच्छे और सच्चे भाव !!
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