कविता में बचे रहने के लिए
मुझे खोजना पड़ता है गेहूं का बारहमासी पौधा।
जिसमें पूरे परिवार की भूख निर्भर है।
इससे बनी रोटी
सिर्फ पेट की नहीं,
घर की भी जरूरत है।
ये कपड़ा भी बन जाता है,
छत भी,
स्कूल की फीस भी,
डॉक्टर की हिस्सेदारी भी,
नजराना भी यही है
और
जुर्माना भी।
इतना करके कविता में बचा हूँ,
शब्दों को नए-नए अर्थ में
पिरोने से पहले
पेट को भरना जरूरी है।
नहीं तो शब्द छुप से जाते हैं।
या फिर भागते दिखते हैं।
विद्रोह के शब्दों से भी
चारण गीत बजने लगता है।
विशाल बरगद की छाँह सुहानी लगने
लगती है।
देखते-देखते पसीना निकलना बंद हो जाता है,
वातानुकूलित माहौल का आदी होते ही
शब्द सुस्ताने लगता है।
फिर जुगत की तलाश में
हम भदेस गाली देते हैं।
और हमारे बाजू वाले आलोचक फतवा देते हैं,
कविता यही है।
हमारी नजर घड़ी पे जाती है।
दिन
महीना
साल पे।
इससे पहले कि कवि के चुकने की
घोषणा हो,
हमारा ठंडा-ठंडा कमरा असहिष्णु होता जाता है।
हम अपने स्कूल में नए-नए आए हुए रंगरूट
को
हरी झंडी दिखा
दूसरे के ट्रोल को बेनकाब करने में लग जाते हैं।
पुरानी पड़ी
भुला दी गई
पुरस्कार के वापसी की घोषणा करते हैं,
राशि को खरचते हुए।
उम्मीद यही कि
हमारी रोटी हमें मिलती रहे।
इसीलिए
जरूरी है
कि कविता करने से पहले
कम से कम
घर की छत पे ही गेहूं उगा लें,
रोटी जुटा ले।
कविता करने के दौरान
और बाद में रोटी की तलाश
बड़ी महंगी है।
आपकी रूह बिक सकती है।
हमारा जायका बिगड़ सकता है।
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