देर तक ब्लॉग से अनुपस्थित रहने के लिए क्षमा। मैं लिखना और कुछ चाहता था, लेकिन कॉपीराइट वाले मसले पर जावेद अख्तर और आमिर खान के झगड़े ने मुझे कुछ दूसरा लिखने के लिए सूत्र दे दिया। झगड़ा यह था कि गाने की लोकप्रियता में स्टार का हिस्सा बड़ा होता है या उस गाने के बनाने वालों, यानी गायक, संगीतकार, गीतकार इत्यादि का। इसमें भी सबसे कम श्रेय मिलता है बेचारे गीतकार को।
हम गाने को फिल्म से जोड़कर देखते हैं, ‘लता का या रफी का गाना’ जैसे पहचानते हैं, शंकर जयकिशन या आरडी बर्मन को भी याद करते हैं, आम श्रोता कितने गानों के गीतकारों को जानते हैं? इसकी वजह यह भी है कि मुंबइया फिल्म उद्योग में कलम घसीटने को कोई बड़ा काम नहीं माना जाता। सब कहते हैं कि अच्छे लेखक नहीं मिलते, लेकिन उस उद्योग में लेखक की जो हैसियत है, उसे देखते हुए कौन वहां जाना चाहेगा।
मेरा मुद्दा यह है कि गाने की लोकप्रियता में गीतकार का हिस्सा जितना महत्वपूर्ण होता है, उतना उसे श्रेय नहीं मिलता। मैं उदाहरण देता हूं- राहुल देव बर्मन बहुत प्रतिभाशाली थे, सब जानते हैं और मानते हैं। आरडी की सबसे अच्छी फिल्में याद कीजिए। सबसे पहले वे सारी फिल्में याद आएंगी, जिनमें गुलजार के गीत हैं, इजाजत, किनारा वगैरा। ‘लव स्टोरी 42′ जो आरडी की आखरी फिल्म थी और जिसका संगीत बहुत अच्छा था, उसमें गीतकार जावेद अख्तर थे। इसके अलावा मजरूह सुल्तानपुरी के साथ की फिल्में, तीसरी मंजिल, कारवां वगैरा। आनंद बख्शी अपनी तरह के कुशल गीतकार थे, लेकिन काव्यात्मक स्तर पर सबसे कमजोर थे, उनके साथ आरडी के लोकप्रिय गीत बहुत हैं, लेकिन ज्यादातर चालू गीत हैं, एकाध ‘अमर प्रेम’ छोड़कर। आरडी को याद किया जाएगा तो ‘तीसरी मंजिल’ के लिए या ‘इजाजत’ के लिए। बल्कि मेरा मानना है कि अपना सर्वश्रेष्ठ सृजन करने के लिए आरडी को ज्यादा काव्यात्मक गीतों की जरूरत पड़ती थी, गुलजार के साथ उनकी प्रतिभा जैसे निखरती थी वैसी किसी के साथ नहीं निखरी।
आनंद बख्शी का मैं सम्मान करता हूं, बल्कि उनकी मृत्यु पर मैंने लिखा भी था। फिल्म उद्योग के ज्यादातर नामी गीतकार फिल्मों के बाहर भी प्रतिष्ठित कवि थे। साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, जाँ निसार अख्तर, शैलेन्द्र मूलत: साहित्यिक कवि थे, जिन्होंने फिल्मों में भी शानदार गीत लिखे। इन सबके कविता संग्रह छपे हैं, और उनको काफी ख्याति भी मिली है। लेकिन आनंद बख्शी शुद्ध फिल्मी गीतकार थे, वे जरूरत के हिसाब से शब्द ढालने में माहिर थे। उनके गीत लोकप्रिय जरूर होते थे, लेकिन आप उन्हें साहिर या शैलेन्द्र की टक्कर में नहीं रख सकते।
दूसरा उदाहरण लक्ष्मीकांत प्यारेलाल का है। लक्ष्मीकांत प्यारेलाल अपने जमाने के नामी संगीतकार थे, एक दौर था जब एक ओर लक्ष्मीकांत प्यारेलाल और दूसरी ओर आर डी बर्मन, दो ही का सिक्का चलता था। लक्ष्मीकांत प्यारेलाल बेहद गुणी संगीतकार तो थे लेकिन किसी संगीत प्रेमी से पूछिए तो वह मानेगा कि उनका सबसे अच्छा संगीत तब का है जब वे धार्मिक या स्टंट फिल्मों के संगीतकार थे। ‘पारसमणि’, ‘हम सब उस्ताद हैं’, ‘मिस्टर एक्स इन बाँबे’, ‘हरिश्चन्द्र तारामती’, ‘सती सावित्री’ का संगीत कमाल का है। ‘दोस्ती’ और ‘मिलन’ से वे टॉप पर पहुंचे। इन दोनों फिल्मों का संगीत बहुत अच्छा है। लेकिन उसके बाद उनके संगीत की गुणवत्ता वह नहीं रही। बाद के उनक गानों में ‘मेरे महबूब कयामत होगी’ या ‘तुम गगन के चंद्रमा हो’ जैसा कोई गाना बताइए।
मेरी नजर में इसकी वजह यह है कि ‘मिलन’ के पहले वे कई गीतकारों के साथ काम करते थे। असद ‘भोपाली’ से लेकर तो भारत व्यास तक ने उनके लिए गाने लिखे। ‘मिलन’ के बाद उनकी जोड़ी आनन्द बख्शी के साथ बन गई और फिर वह मजा नहीं रहा। ‘सत्यकाम’ फिल्म के गाने बहुत अलग हैं, क्योंकि उसके गीतकार थे कैफी आजमी। लोकप्रियता के आखरी दौर में उन्होंने ‘उत्सव’ फिल्म में कमाल का संगीत दिया है, उस फिल्म के गीतकार वसंत देव थे। काव्यात्मक शब्द ही श्रेष्ठ गीत बना सकते हैं, यह सत्य है। शैलेन्द्र की मृत्यु के बाद शंकर जयकिशन का क्या हुआ। लेकिन इस मुद्दे पर फिर विस्तार से।
अच्छा प्रयास , बधाई
जवाब देंहटाएंसार्थक लेखन के लिये आभार।
जवाब देंहटाएंयदि आपके पास समय हो तो कृपया मुझ उम्र-कैदी का निम्न ब्लॉग पढने का कष्ट करें हो सकता है कि आप के अनुभवों से मुझे कोई मार्ग या दिशा मिल जाये या मेरा जीवन संघर्ष किसी के काम आ जाये।
http://umraquaidi.blogspot.com/
अच्छा लिखा है मगर शंकर-जय किशन को मत भूलिएगा....सफल संगीतकार रहे हैं...सुपरहिट संगीतकार
जवाब देंहटाएंसार्थक लेखन के लिये आभार।
जवाब देंहटाएंहिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
जवाब देंहटाएंकृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपने बहुमूल्य विचार व्यक्त करने का कष्ट करें