हिंदी फिल्मों में सबसे बड़ी तादाद में खराब गीत किसने गाए? यहां बात कुमार शानु और हिमेश रेशमिया की नहीं है, सचमुच के गायकों की बात हो रही है। मेरे ख्याल से इसका जवाब होगा- लता मंगेशकर, मोहम्मद रफी और किशोर कुमार। वजह साफ है लता मंगेशकर लंबे वक्त तक सबसे लोकप्रिय गायिका रही, मोहम्मद रफी पहले और बाद में किशोर कुमार सबसे लोकप्रिय पुरुष गायक रहे। इसकी वजह से सारे संगीतकार इन्हीं से गाने गवाते थे। हिंदी सिनेमा में जाहिर है अच्छे गाने कम बनते हैं, साधारण या बुरे गाने ज्यादा बनते हैं, इसलिए बुरे गाने भी इन्हीं के ज्यादा होते थे। दूसरी बात यह है कि चूंकि वे लोकप्रिय थे इसलिए उन्हें ऐसे गाने भी गाने को मिलते थे जो उनकी आवाज से बहुत मेल नहीं खाते थे। तलत महमूद, मुकेश, गीतादत्त आदि के बुरे गाने इसलिए कम हैं उनको तभी गाना मिलता था जब संगीतकार को लगता था कि यह गाना उनकी आवाज में ही अच्छा लगेगा, और संगीतकार अपनी चला भी पाता था। फिल्म उद्योग में ऐसा कम ही होता था कि संगीतकार जिसे चाहे उससे गाना गवा ले (अब शायद होता होगा क्योंकि अब जो गाने चलते हैं उन्हें कोई भी गाए, क्या फर्क पड़ता है)। फिल्म में पैसा लगाने वाला, निर्माता, निदेशक, हीरो, हीरोइन, सब अपनी पसंद चलाना चाहते थे और चूंकि सबकी इच्छा यह होती थी कि गाना लोकप्रिय बने इसलिए वे सबसे हिट गायक को चुनते थे। मन्ना डे को अभी दादासाहेब फाल्के पुरस्कार मिला है इसलिए यह किस्सा काफी लोगों को मालूम हो गया होगा कि फिल्म ‘चोरी-चोरी’ के गाने मन्ना डे से गवाने के लिए शंकर-जयकिशन को काफी संघर्ष करना पड़ा था। एक बार तो निर्माता ने रिकार्डिग कैंसल करके मन्ना डे को लौटा दिया था। शंकर-जयकिशन अपने जमाने में कोई ऐसे वैसे संगीतकार नहीं थे, उनकी हैसियत हीरो-हीरोइन से बड़ी होती थी। उन्होंने समझा-बुझाकर निर्माता को राजी किया और मन्ना डे भी अपमान को भुला कर रिकार्डिग के लिए आए। हमें ‘आजा सनम मधुर चांदी में हम’ और ‘ये रात भीगी-भीगी’ जैसे गाने मिले और मन्ना डे की सिर्फ धार्मिक या देशभक्ति के गानों के अलावा भी पहचान बनी।
सितारों के भी नखरे होते हैं। ‘आदमी’ फिल्म का दोगाना ‘एक चांद आसमान पे है, एक मेरे साथ है’ मोहम्मद रफी और तलत महमूद की आवाज में नौशाद ने रिकार्ड किया था। तलत का सितारा तब तक डूब चुका था और मनोज कुमार बड़े स्टार थे, उन्होंने तलत महमूद की आवाज अपने लिए इस्तेमाल होने का विरोध किया। नौशाद ने तब तलत वाले हिस्से को गाने के लिए मुकेश से संपर्क किया। मुकेश, तलत महमूद के जिगरी दोस्त थे, सो उन्होंने गाने से मना कर दिया। तब गाना महेन्द्र कपूर की आवाज में रिकार्ड किया गया। अब हाल यह है कि रिकार्ड में गाना तलत ने गाया है और फिल्म में महेन्द्र कपूर की आवाज है। मदन मोहन भी तलत के प्रिय दोस्त थे और प्रिय गायक भी, लेकिन आखिर के लगभग दस साल वे तलत से एक गाना नहीं गवा सके। मैं अक्सर सोचता हूं कि शायद आखरी गीत मोहब्बत का सुना लूं या ‘आपके पहलू में आ कर रो दिए’ के वक्त मदन मोहन को तलत की याद आई होगी। ‘तुम्हारी जुल्फ के साए में शाम’ या ‘तेरी आंखों के सिवा दुनिया में’ तो पक्के मोहम्मद रफी के गाने हैं, या हो सकता है कि दस साल पुराना वक्त होता तो मदन मोहन तलत को ही याद करते।
कभी-कभी आर्थिक वजहों से भी संगीतकार अपने प्रिय गायक से नहीं गवा पाते, यह दूसरा पक्ष है। बड़े गायक ज्यादा पैसे लेते हैं और छोटा निर्माता देने की हालत में नहीं होता। किशोर कुमार के तो किस्से मशहूर हैं कि वे पूरा-पूरा पैसा लिए बिना नहीं गाते थे। लता अपनी फीस कम जरूर कर सकती थीं लेकिन या तो सम्माननीय संगीतकारों के लिए या लक्ष्मीकांत प्यारेलाल जैसे नए लोगों के लिए जिन्हें वे प्रोत्साहित करना चाहती थी। राजू भारतन ने लिखा है कि सी. अर्जुन ने उन्हें बताया कि एक धुन उन्होंने ऐसी बनाई (संभवत: ‘पास बैठो तबीयत बहल जाएगी’) कि उन्हें लगा कि यह मदन मोहन की टक्कर की धुन है और वे मोहम्मद रफी से उसे गवाना चाहते थे। निर्माता के पास पैसा नहीं था, सी. अर्जुन डरते-डरते मोहम्मद रफी के पास गए। मोहम्मद रफी दरियादिल आदमी थे, उन्होंने बहुत कम पैसा लेकर वह गाना गा दिया। गाना शानदार बनता है बोल, धुन, वाद्यवृंद की संरचना और गायक की आवाज के सही मेल से, इनमें से एक भी सुर गड़बड़ लगा तो सारी संगीत रचना बेसुरी हो जाती है। इन दिनों अक्सर मैं यह खेल मन ही मन खेलता हूं कि ऐसा कौन सा गाना है जो किसी दूसरे गायक की आवाज में अच्छा लगेगा। ऐसी ही कुछ बातें अगली बार।
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