अलगाववादी आंदोलन से घिरे जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने राज्य के भारत में विलय पर सवाल खड़े कर हुर्रियत के नेता गिलानी और मीरवाइज उमर फारूक को भले खुश कर दिया हो, लेकिन उसे जम्मू सहित देश के बाकी हिस्सों में एक खतरनाक फिसलन की तरह देखा जा रहा है। कहा जा रहा है कि राज्य पर राजनीतिक और प्रशासनिक पकड़ बनाने में नाकाम रहे उमर अब सारा ठीकरा केंद्र के सिर फोड़कर अपनी कुर्सी बचाने मे लगे हैं।
यह अब्दुल्ला परिवार की पुरानी रणनीति रही है। जब वह कश्मीर में आजादी समर्थकों से घिरता है, तो भारत विरोधी बयान देने लगता है और जब दिल्ली आता है तो देशभक्त बन जाता है। दूसरी तरफ यह भारत की भी मजबूरी है कि उसे कश्मीर में वैसा विश्वसनीय राजनेता मिल नहीं पाया है। इसीलिए कांग्रेस पार्टी ने उमर अब्दुल्ला के बयान का समर्थन भी किया है।
कश्मीर की सत्ता को पाने और उसे संभालने की यही रणनीति अब महबूबा मुफ्ती भी अपनाने लगी हैं। इस तरह अलगावादी शेर की सवारी करने वाले कश्मीर के नेताओं के बीच इस काम के लिए एक तरह की प्रतिस्पर्धा भी है। इस होड़ की तात्कालिक वजह तो कश्मीर के मुख्यमंत्री का पद है। पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती कांग्रेस के संपर्क में हैं और बीच में उनकी पार्टी के कांग्रेस के साथ मिलकर सरकार बनाने की चर्चाएं भी तेज हो गई थीं।
सरकार में भी उमर अब्दुल्ला की विफलता को गंभीरता से लिया जा रहा है। उन्होंने जिस तरह घाटी के स्कूल खोले जाने के फैसले को गृह सचिव जीके पिल्लई का फैसला बताकर उससे अपने को अलग किया है और प्रधानमंत्री के आर्थिक और रोजगार संबंधी पैकेज को नकारा है, उससे भी अलग समीकरण के संकेत मिल रहे हैं। कहा जा रहा है कि केंद्र सरकार उनसे निजात पाना चाहती है, लेकिन वे गांधी-नेहरू और अब्दुल्ला परिवार के पुराने संबंधों का हवाला देकर अपने को टिकाए रखना चाहते हैं।
यही वजह है कि तीन महीनों की जबरदस्त अशांति के बाद भी राहुल गांधी ने उनके कंधे पर हाथ बनाए रखा। एक राजनीतिक गठजोड़ के सहयोगी दल का यही धर्म भी है, पर यह धर्म तभी तक निभाना चाहिए, जब तक इससे राष्ट्र और जनता का हित सधता हो। अगर इससे इन दोनों हितों पर आंच आने लगे तो उसमें परिवर्तन के बारे में सोचा जाना चाहिए।
कश्मीर का विलय पूर्ण था या अर्ध, अनुच्छेद 370 का ठीक से पालन हुआ या नहीं, स्वायत्तता का नया स्वरूप क्या होना चाहिए आदि ऐसे सवाल हैं जो कश्मीर ही नहीं, भारत के अस्तित्व से भी जुड़े हैं। उन्हें ज्यादा बयान देकर भड़काना उचित नहीं है, तो उन पर ढुलमुल राय भी ठीक नहीं है। बयान और राय के इस विवाद से आगे जरूरत इस बात की है कि कश्मीर में ठोस पहल हो।
कश्मीर में वार्ताकार की नियुक्ति में देरी और फिर उन्हें काम करने के लिए लंबा समय देने से कोई लाभ नहीं होगा। अगर राज्य में सत्ता परिवर्तन से हालात और बेहतर हो सकते हैं तो उसमें भी विलंब नहीं करना चाहिए। साथ ही पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के उन सुझावों पर भी विचार करना चाहिए कि सरक्रीक और सियाचिन की समस्या का पहले हल निकालने से कश्मीर में सुविधा होगी।
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