बुधवार, 5 दिसंबर 2018

शांति से जीने नहीं दे रहा है।।

हे महामानव
इसपर कि तुमने उठा के कांधे पे पूरी धरती को
घंटो बतियाते रहे
धरम की भाषा में
विज्ञान की परिभाषा में
विश्वास और अविश्वास की संहिता लिए
और कभी ये नहीं कहा कि
सदियों से है
तुम्हारे ऊपर
पूरी धरती का भार
( खुद का थोपा )
मजहब की एक पूरी दीवार
जो उगा रक्खी है
अपने सीने पे
कि जिससे
स्वर्ग का रस्ता
और नरक की सीढ़ी
दिखा दिखा के
हमारी स्वर्ग सी
जिंदगी
को
नरक बना दिया
तुम सब
चंद महामानवों ने
हमारी आसान सी जिंदगी को
सरहदों में जकड़ दिया
हम जो यूं ही हँस सकते हैं
और
रो सकते है
भावुक होने पे
को बिल्कुल नयी वसीयत में
नाप दिया
हे महामानव
तुम कुछ मुट्टी भर
और
फैल गए हमारे पूरे अतीत पे
ग्रस रहे हो
हमारा पूरा वर्तमान
और भविष्य
तो है ही नहीं
किसी का
सिवाय
तुम्हारी जमात के
कुछ चंद महामानवों के
जो अगली कुछ सदी में
पैदा होने वाले है।
हे महामानव
हम जो बिना नाम के मर जाते हैं
जी भी लेते हैं
आसानी से बिना पहचान बनाये
नहीं सोचते हैं
कि मरने के बाद क्या होगा
और जन्म से पहले क्या था।
को
तुम्हारे जटिल
दार्शनिक विमर्श
आध्यात्मिक सूत्र
मज़हबी संदेश
जैसे
भारी भरकम सवाल
और अबूझ जवाब
शांति से जीने नहीं दे रहा है।