रविवार, 20 दिसंबर 2020

मौत तो कविता की भी होती है

तमीजदार भाषा
सेवक की भाषा
आपकी जगह लेट जाती है
तानाशाहों के बिस्तर पर
फिर पैदा होती है
एक कवि की कविता
एक लेखन की रचना
महाकाव्य
इतिहास
जीवनगाथा
पवित्र किताब
अंतिम भी
और कुछ पात्र 
महान चरित्र बन जाते है.
और
गुलामों को 
एक आदर्श के रूप में 
हमेशा याद हो जाता है
मर्यादा बोध,कर्म सिद्धांत से लेकर
आसमानी संदेश तक
उसी तरह उगते हैं
जिस तरह 
पैदा हुआ करता था
एक दासी की कोख से
कुलीन वंश का अंश.
हम आज में भटकते हैं
और खो जाते हैं
अतीत के अंधेरों में
हाथी किसी को कान नज़र आता है
किसी को पांव
और फिर हमारे अंदर का बाणभट्ट
एक हर्ष को खोज लेता है
मुद्दा ये नहीं है कि
झूठ बोला जाता है
लिखा जाता है
दरअसल हमें तैयार किया जाता है
हर युग में
बिना सोचे
बिना बोले
बिना देखे
मानने 
मानने 
मानने के लिए
हर विचारक किसी न किसी की हत्या करता है
हर क्रांति  से कुछ आजादी छिनती है
हर पुरस्कार वफादारी का इनाम होता है
हर चैरिटी का एक मिशन होता है
हर सुधारक कुछ बिगाड़ के चला जाता है
हमारे हिस्से
जो होती है
कुछ देर की सांस
कुछ पल की रौशनी
उसे
थोड़ी सी नमी में बो के
अपने शक्ल से मिलता-जुलता
शक्ल उगा कर
धरती को जगाए रखते हैं
एक वक़्त ऐसा भी आता है
जब सबकुछ व्यर्थ प्रतीत होता है
सब बीमार नजर आते हैं
सारे फूल कुम्हलाए
सारे रिश्तें बिखरे नज़र आते हैं
महामानव भी
आम आदमी की तरह चला जाता है
भले ही हम कितना भी 
राष्ट्रीय शोक मना लें.
तुम मानो या न मानो
मौत तो कविता की भी होती है।

मंगलवार, 15 दिसंबर 2020

समय ठहरा रहेगा तब तक

पूरी गर्मजोशी के साथ
मैं उस क्षण
भी
करूँगा तुम्हारा स्वागत
जब
शरीर मुर्झा चुका होगा।
आँखों ने बोलना
और
मस्तिष्क ने समझाना
बंद कर दिया होगा।
एक-एक कर ढेरों
कैलेंडर
उतर चुके होंगे दीवार से .
मैं दीवार पर
एक नया कैलेंडर खिलाऊंगा।
और फूलदान से
रोज की भांति
बासी फूलों को निकाल
उसमें
ताजे फूलों के साथ
शेष बची जिंदगी को भी
तुम्हारे लिए
सजा दूंगा.
समय ठहरा रहेगा तब तक.

रविवार, 29 नवंबर 2020

मेरी कविता फुटपाथ पर मिलेगी

मेरी कविता
फुटपाथ पर मिलेगी
किसी दुकान में नहीं
तुम फुटपाथ पे रहते हो
आओ पढ़ लो इसे
अपनी चहलकदमी में
अनगिनत लक्ष्यों को
छोड़ती
पकडती
मिल जाने की ख़ुशी से
न मिल पाने के गम तक
रहने के काबिल नहीं
दुनिया को छोड़ने का मन नहीं करता
बौद्धिक क्षमता से जी रहे
जीवन ने
नैतिकता का ठेका ले लिया है
ईश्वर की विरासत पर
नास्तिकों ने
सबूत के साथ दावा ठोंक दिया है
और संस्कृति मंत्रालय के अनुदान की खातिर
सड़क पर उतर आया है
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद
सरकारी रायते पर फैलते प्रबंधकों ने
जिन पत्रकारों को
निकाल बाहर किया है
समस्या की जड़ को पकड़े
अपनी-अपनी खिड़कियों से
बेतार की गलियों को नाप रहे हैं
हांफते हुए 
गोदी मीडिया के दुत्कारे
ज़कात का थैला लिए
किसी को जो जजिया दीखता है
मार्क्स, लेनिन, माओ
की कसम खाने वाले को
लोकतंत्र खतरे में नजर आने लगा है
संविधान की जिल्दें नीली हो गई है
जिसका कोर लालधारी है.
महापुरुषों का फिर से
नई सरकार बहादुर ने
डीएनए टेस्ट कराया है
लौहपुरुष का गोत्र
नेहरू से ऊपर गाँधी के बराबर है
सावरकर हेडगेवार गुरु जी का सबसे ऊपर
इस डर से कि
इस आपाधापी में कहीं जिन्ना की तस्वीर
उतर न जाए
शेरवानी में लठैतों की ड्यूटी बंट गई है
खोज तो इसकी भी हो रही है कि
विवेकानंद ने मार्क्स को पढ़ा था कि नहीं
जेएनयू में दाखिले के लिए
इतनी बड़ी दुनिया को
हमने अपने विस्तार में सिमटा दिया है
ज़मीं से हवा-पानी में हम फ़ैल गये हैं
समस्या इतनी बढ़ गई है कि
हल होना भी एक समस्या है
हम अपने पडोसी को सलाह देते हैं
उसकी मुसीबत बढ़ जाती है.
फ़्रांस का हमें दुःख हो जाता है
और अमेरिकी चुनाव से
हम खुश हो जाते हैं
मगर
बिहार फिर से चोरी चला जाता है
झूठ को पाकीजगी से बोलो
तो
खुदा हो जाता है
मूक-बधिर
अंधों का प्रवक्ता बन बैठता है
जोड़ने के लिए तोड़ना जरुरी है
तोड़ने के लिए जोड़ा जा रहा है
भाषा
विचार
रंग
रक्त
नस्ल
धर्म
भूगोल
से बांधा तो जाता है
फिर भी खुला छूट जाता है
और
किसी के इन्कलाब पे
जिंदाबाद कोई और बोलता है
जंगल में जब भी होते हैं
विरोध-प्रदर्शन
जानवरों की पीठ पर पेड़ उग आते हैं
उम्मीदों का उड़ान
पैरों को पर बना देता है
विरोध के स्वर बिखर के
चारों तरफ
सड़क को जंगल बना देता है
भीड़ उमड़ आती है
और
हमारे अन्नदाता पहचाने नहीं जाते हैं
रक्षकों ने
अपना पाला बदल दिया है
नायकों के संवाद
खलनायकों के संवाद से बदल गया है
इस संकटकाल में
अविश्वास इतना है कि
तारीख के बाबर को भी
मौके के हिसाब से
बयान देना पर रहा है
बहस ये है कि
हमें सच से कब रूबरू कराया गया
एक लकीर खेंच कर
बता दिया गया कि
इस तरफ और उस तरफ में
पूरब-पश्चिम जितना फासला है
प्राचीन
मध्यकालीन
आधुनिक
काल में विभाजित इतिहास
हमारे जेहन में
बिलकुल समकालीन हो गया है
औरंगजेब के हाथों
दारा सुकोह का क़त्ल हो रहा है
हम मंदिरों को गिरते देख रहे हैं
अर्जुन देव ने अभी-अभी शहादत दी है
कश्मीरी पंडितों के लिए
जिसके फलस्वरूप भिंडरावाला मारा गया है
मुस्लिम लीग के
‘डायरेक्ट एक्शन डे’ की आग और हिंसा
पंजाब बंगाल दिल्ली बिहार
गोधरा होते हुए गुजरात पहुँच गया है
और जिस जंग को
पृथ्वीराज चौहान
दया-धर्म के बदौलत
लगभग गँवा चुके थे
उसे जीत लिया है हिन्दू ह्रदय सम्राट ने.
और इधर
हमारी बेलौस बहकी हुई कविता
इधर-उधर मुंह मारती हुई जा पहुंचती है
साहित्यिक कोठे पे
और फिर
बड़े-बड़े दावों के बीच से
यूँ ही निकल आती है 
बंद मुट्ठी से फिसलते रेत की तरह
क्योंकि
मेरी कविता पर
मेरी अँगुलियों के निशान नहीं है
उसपर अपने वक़्त का मुहर है.

शनिवार, 21 नवंबर 2020

हमारी धरती से बेहतर कुछ भी नहीं।

मैं मर जाऊं
तो मुझे या मेरी आत्मा को
धरती पे ही छोड़ देना।
तनिक भी चाह नहीं है कि
जन्नत या दोजख
हेवेन या हेल
स्वर्ग या नरक
क्षण भर के लिए भी जाऊं
भला बताओ
शराब का मैं आदि नहीं
विवाह हो ही चुका है
चिरयौवन तो यहां भी हूँ
तो फिर चला भी गया
तो करूँगा क्या?
फिर पता नहीं
हुकूमत किसकी और कैसी होगी।
अच्छा तुम ही बताओ।
लोकतंत्र है वहां?
सबकी बराबरी वाला संविधान
लिखा है किसी ने वहां?
और तो और
टीवी मिलेगी नहीं
मोबाईल होगा नहीं।
टिकटॉक, फेसबुक, ट्वीटर
जीमेल, जूम
हॉलीवुड
बॉलीवुड
नेटफ्लिक्स
प्राइम
आईपीएल
इजरायल, कोरिया
चाइना, पाकिस्तान।
और 
रूस अमेरिका जापान।
धरना-प्रदर्शन,
जलसा-जुलूस।
विश्व बैंक
डब्ल्यू एच ओ
संयुक्त राष्ट्र संघ
अपना सार्क भी,
होगा तो कुछ भी नहीं।
इसीलिए
आपसे भी कहता हूं
आप भी अभी ही पुनर्विचार कर लीजिए।
मेरी तरह।
हमारी धरती से बेहतर कुछ भी नहीं।

शुक्रवार, 31 जुलाई 2020

पगडंडी

वे तो बस नियमित चला करते रहे
उन्हें पता भी नहीं था 
कि 
उनके चलने से भी निशान बनते हैं
छोटी सी पगडंडी है 
इसे कुछ एक से जाने पहचाने लोगों ने 
आदतन नंगे पांव चलकर बनाया है 
पहले पहल झाड़-झाड़ी दबे
तलवे तले हरी घास पीली हुई 
फिर मिट्टी की एक लकीर खिंच गई
यही लकीर पगडंडी बन गई।
क्योंकि 
नंगे पैरों में एक अपना अनुशासन था
उसकी थाप वहीं पड़ते रहे 
जहां पड़ा करते थे 
अक्सर बनती है पगडंडियां
खेतों से होकर 
इसलिए पता होता है 
चलने वालों को अपना दायरा
एक कदम भी इधर-उधर होने से
पौधों की दुनिया में आपका अतिक्रमण हो सकता है 
पगडंडियां वही बनेगी और बची रहेगी
जहां भीड़ ने अपने पैरों से कभी हमला न किया हो
 बूटों के गर्म दाग न लगे हों
और 
दनदनाती गोली की तरह 
मोटर लगी किसी दो पहिया वाहन ने
निशाना न बनाया हो
जो नहीं  जा सकते किराए की गाड़ी से 
और 
जिन्हें अपना सामान 
अपने ही सर पर उठाना होता है
उनके लिए ये पगडंडी एक सहज सवारी की तरह है 
गांव के संपन्न लोग अपनी गाड़ी से 
जितने समय में सड़क होकर सदर बाजार पहुंचते हैं 
उससे भी कम समय में 
पगडंडी की सवारी कर बाजार पहुंचा जा सकता है 
सड़क की सवारी करने वाले भी
पगडंडी का लेते रहे हैं सहारा
मगर
उनसे कभी कोई पगडंडी बन नहीं पाया है
किसी भी सरकारी दस्तावेज में 
पगडंडी का कोई जिक्र नहीं मिलता है 
और ना ही 
किसी योजना से उस पर कोई काम हुआ है 
असल में तो 
सरकारी योजना से पगडंडी बन भी नहीं सकती
या यूं कहिए कि 
सरकारी योजना से कोई राह नहीं निकल पाने के कारण ही
पगडंडी बना करती है
पगडंडी कभी सदा के लिए नहीं बनती
इसका कोई इतिहास  नहीं है 
इसका भविष्य भी नहीं है 
इसे सुरक्षित रखने का भी कोई रिवाज नहीं है 
जबकि सहूलियत के रूप में 
हमेशा से काम आता रहा है
मगर किसी बड़े महापुरुष के नाम पर 
आज तक किसी ने भी 
कभी पगडंडी का कोई नामकरण नहीं किया है 
बेनाम रह जाती है पगडंडी 
और शायद इसीलिए 
इसके योगदान का कोई मूल्यांकन नहीं करता 
जरूरत में पगडंडी ने कितना साथ दिया 
इस पर कोई नहीं सोचता 
हमारे जीवन का अहम हिस्सा रही है पगडंडी 
मगर जब हमें कोई बड़ा काला सा सड़क दिखता है 
जिसके किनारों पर उजली पट्टियां चमकती हो 
हम खुश हो जाते हैं अपनी प्रगति पर 
पगडंडी हमारे पिछड़ेपन की निशानी बनकर रह जाती है
काली सड़क ने हमेशा
रफ्तार वाली पहियों को सहारा दिया है
नंगे पैरों को हमेशा जलाया है
नंगे पैरों ने हमेशा पगडंडियों को चाहा है।
अब जबकि मजबूरी में पैदल चलना
पिछड़ेपन की निशानी है
मेरी
कविता की पगडंडी 
पगडंडी की कविता
कई लेन वाली पक्की चौड़ी सड़क  के बीच 
और कितने दिनों तक अपना अस्तित्व बचा पाएगी 
या कि बना भी पाएगी
इसपर संदेह है पर अफसोस नहीं है।

गुरुवार, 30 जुलाई 2020

ऐसा भी समय था
अखबार छपता था
तो पाठक खरीदता था
और फिर
दूसरे दिन कबाड़ी वाला ले जाता था
आज
कबाड़ी वाला खरीदता है
फिर
अखबार छपता है
और
पाठकों को मुफ्त दिया जाता है।
पैसा तो
साथ के
बाल्टी
डब्बा
जार
और घड़ी का लिया जाता है।
अखबार से केवल
कूपन सहेजा जाता है।

शुक्रवार, 24 जुलाई 2020

भाया अररिया।

बदतमीज लड़की
तुम्हें तमीज 
नहीं सिखाया गया क्या?
किस तरह पेश आना है
अजनबियों के सामने आ
बात नहीं करनी है
कब बोलनी है
और
कितनी ऊंची आवाज में बोलनी है
नहीं बताया गया क्या?
बदतमीज लड़की
तुम्हें तमीज 
नहीं सिखाया गया क्या?
नज़र झुकी होनी चाहिए
ख्वाहिशें रुकी होनी चाहिए
शर्म होनी चाहिए 
हया होनी चाहिए
लाज ही है तुम्हारा गहना
पता होनी चाहिए।
रोटी
कपड़ा
पढ़ाई पे 
तुम्हारा दूसरा हक़ है
पराई धन हो
बाप का घर 
गिरवी है, बंधक है।
गोल रोटी बनानी सीखनी थी
सायकिल चलानी नहीं।
सब्ज़ी में नमक का अंदाज़ा 
माँड़ पसाना
बर्तन मांजना 
ये जरूरी है तुम्हारे लिए
बात बनानी नहीं।
जमाना कितना खराब है
फिर भी अकेली घूमती हो
कभी भी ये बात
नहीं बताया गया क्या?
बदतमीज लड़की
तुम्हें तमीज 
नहीं सिखाया गया क्या?
घर से निकलो तो
छोटे भाई को साथ ले लो
देर न करो
सहेली के भी घर जाओ
तो बता के जाओ।
सर पे नहीं 
तो कम से कम
सीने पे तो दुपट्टा रखो
कितनी खराब दुनिया है
नहीं दिखाया गया क्या?
बदतमीज लड़की
तुम्हें तमीज 
नहीं सिखाया गया क्या?
कोई लड़का
तुम्हारा दोस्त कैसे हो गया
एंड्राइड मोबाईल की
तुम्हें क्या पड़ी है।
माँ ने अपनी मोबाईल दी हैं न
बात ही तो करनी है
घर वालों से।
फिर
टिक-टॉक
पे वीडियो क्यों बना लेती हो
सिलाई कढाई स्कूल में नाम 
अभी तक
नहीं लिखाया गया क्या?
बदतमीज लड़की
तुम्हें तमीज 
नहीं सिखाया गया क्या?
तुम घर की मर्यादा हो
इज्जत हो
इतना बड़ा आंगन है।
माँ है
दीदी है
बुआ है
दादी है
चाची है
छोटी बहन है।
अब और क्या चाहिए
कि दरवाजे की चौखट पे 
बार-बार आ जाती हो।
क्या कोई बात है
पूछने पे
कुछ भी नहीं बताती हो
घर मे रहने का सलीका
नहीं बताया गया क्या?
बदतमीज लड़की
तुम्हें तमीज 
नहीं सिखाया गया क्या?
गुलेल क्यों चलाती हो
पतंग क्यों उड़ाती हो
लड़कों संग खेलती क्यों हो?
झगड़ती हो तो
लड़कों जैसी
गाली क्यों देती हो।
हाथों में मेहंदी 
रचाती नहीं हो।
शादियों में गीत 
कभी गाती नहीं हो।
कभी कोई व्रत उपवास
करती नहीं हो।
औरत जात हो
फिर भी डरती नहीं हो।
गीता रामायण
सती सावित्री, अहिल्या कथा
नहीं पढ़ाया गया क्या?
बदतमीज लड़की
तुम्हें तमीज 
नहीं सिखाया गया क्या?

रविवार, 21 जून 2020

नेचुरल समाजवादी विचारधारा है बरसात।

बरसात में
दूबों के भी हरे-हरे
पर निकल आते हैं।
पथरीली और बंजर जमीनों की भी
गोद भराई हो जाती है।
बरसात में पेड़ लगाने के ही अनुष्ठान नहीं होते
खुद ब खुद काई भी उगा करती है।
सभी को पनपने की बेहिसाब आजादी
मिल जाती है,
जिससे चीजें बिगड़ने लगती है
बरसात में।
सदा चुप रहने वाले हरे पेड़-पौधे भी
बेतरतीब रूप से फैलने लगते हैं
अब तक लोहे के बड़े-बड़े औजारों की देखरेख में
 फौजी अनुशासन में करीने से खड़ा
आंख को सुहाता 
विशाल बगीचा
और पोर्टिको का पालतू नस्ली पौधा 
भी
पैनी नजर की मांग करने लगता है।
बरसात में
यूँ तो
अंग्रेजी नाम वाले पौधे
काफी खरच कर लगाया जाता है
जैविक खाद और माकूल मिट्टी के नीचे 
मगर
बरसात तो
पत्थर पर फूल खिला देता है।
जिसे हम
खर-पतवार, घास-फूस, काई समझते हैं।
बरसात उसे भी जी लेने का अवसर देता है।
नेचुरल समाजवादी विचारधारा है बरसात।

गुरुवार, 11 जून 2020

पगडंडी

वे तो बस नियमित चला करते रहे
उन्हें पता भी नहीं था 
कि 
उनके चलने से भी निशान बनते हैं
छोटी सी पगडंडी है 
इसे कुछ एक से जाने पहचाने लोगों ने 
आदतन नंगे पांव चलकर बनाया है 
पहले पहल झाड़-झाड़ी दबे
तलवे तले हरी घास पीली हुई 
फिर मिट्टी की एक लकीर खिंच गई
यही लकीर पगडंडी बन गई।
क्योंकि 
नंगे पैरों में एक अपना अनुशासन था
उसकी थाप वहीं पड़ते रहे 
जहां पड़ा करते थे 
अक्सर बनती है पगडंडियां
खेतों से होकर 
इसलिए पता होता है 
चलने वालों को अपना दायरा
एक कदम भी इधर-उधर होने से
पौधों की दुनिया में आपका अतिक्रमण हो सकता है 
पगडंडियां वही बनेगी और बची रहेगी
जहां भीड़ ने अपने पैरों से कभी हमला न किया हो
 बूटों के गर्म दाग न लगे हों
और 
दनदनाती गोली की तरह 
मोटर लगी किसी दो पहिया वाहन ने
निशाना न बनाया हो
जो नहीं  जा सकते किराए की गाड़ी से 
और 
जिन्हें अपना सामान 
अपने ही सर पर उठाना होता है
उनके लिए ये पगडंडी एक सहज सवारी की तरह है 
गांव के संपन्न लोग अपनी गाड़ी से 
जितने समय में सड़क होकर सदर बाजार पहुंचते हैं 
उससे भी कम समय में 
पगडंडी की सवारी कर बाजार पहुंचा जा सकता है 
सड़क की सवारी करने वाले भी
पगडंडी का लेते रहे हैं सहारा
मगर
उनसे कभी कोई पगडंडी बन नहीं पाया है
किसी भी सरकारी दस्तावेज में 
पगडंडी का कोई जिक्र नहीं मिलता है 
और ना ही 
किसी योजना से उस पर कोई काम हुआ है 
असल में तो 
सरकारी योजना से पगडंडी बन भी नहीं सकती
या यूं कहिए कि 
सरकारी योजना से कोई राह नहीं निकल पाने के कारण ही
पगडंडी बना करती है
पगडंडी कभी सदा के लिए नहीं बनती
इसका कोई इतिहास  नहीं है 
इसका भविष्य भी नहीं है 
इसे सुरक्षित रखने का भी कोई रिवाज नहीं है 
जबकि सहूलियत के रूप में 
हमेशा से काम आता रहा है
मगर किसी बड़े महापुरुष के नाम पर 
आज तक किसी ने भी 
कभी पगडंडी का कोई नामकरण नहीं किया है 
बेनाम रह जाती है पगडंडी 
और शायद इसीलिए 
इसके योगदान का कोई मूल्यांकन नहीं करता 
जरूरत में पगडंडी ने कितना साथ दिया 
इस पर कोई नहीं सोचता 
हमारे जीवन का अहम हिस्सा रही है पगडंडी 
मगर जब हमें कोई बड़ा काला सा सड़क दिखता है 
जिसके किनारों पर उजली पट्टियां चमकती हो 
हम खुश हो जाते हैं अपनी प्रगति पर 
पगडंडी हमारे पिछड़ेपन की निशानी बनकर रह जाती है
काली सड़क ने हमेशा
रफ्तार वाली पहियों को सहारा दिया है
नंगे पैरों को हमेशा जलाया है
नंगे पैरों ने हमेशा पगडंडियों को चाहा है।
अब जबकि मजबूरी में पैदल चलना
पिछड़ेपन की निशानी है
मेरी
कविता की पगडंडी 
पगडंडी की कविता
कई लेन वाली पक्की चौड़ी सड़क  के बीच 
और कितने दिनों तक अपना अस्तित्व बचा पाएगी 
या कि बना भी पाएगी
इसपर संदेह है पर अफसोस नहीं है।

शुक्रवार, 5 जून 2020

इन्हीं मायनों ने हमें जानवर रहने नहीं दिया है।

जब हमारे पास किसी को मारने का
कोई कारण नहीं होता
और
हम मार देते हैं
हम जानवर नहीं होते हैं,
इंसान होते हैं।
हजारों साल से हम इंसान हैं।
हजारों साल रहेंगे।
हमारे पूर्वज  जितने समय तक निर्दोष रहे
जानवर थे
वन गुफा कंदराओं जंगलों में रहते थे।
फिर हममें लालच पैदा हुआ
हम इंसान हो गए।
हमें जज्बाती दुनिया से निकाल दिया गया।
अब हमने
मतलब की दुनिया उगा रक्खी है।
जहां
प्यार करना
नफरत करना
हँसना,रोना
सबके मायने होते हैं।
इन्हीं मायनों ने हमें जानवर रहने नहीं दिया है।

गुरुवार, 5 मार्च 2020

पिता

पिता
अपने हिस्से केवल ख्वाबों को चुन
मेरे हक़ीक़त में जान डाली है,
तुम्हारे पैरों की छालों से
मेरी पगडंडियां मखमली हो गई।
हर रात उगाते रहे
मेरे सिराहने
किताबें, कॉपियां, नटराज की पेंसिलें।
(आज वो बरगद की तरह फैल गया है)
बाटा कंपनी का
चमड़े का काला जूता
कितने प्यार से चमकाते रहे
पहनाने के पहिले,
कि जबकि
मिट्टी पे अड़ा तुम्हारा पांव
मिट्टी ही बना रहा।
जड़ों की तरह फैलता रहा,
हमारी खुशियों में फूलता रहा।
आज तक कभी खरीदते नहीं देखा तुमको
अपने लिए कोई कपड़ा।
मगर हर दशहरे में हमें
स्कूल यूनिफार्म सिला ही दिया करते थे।
केवल पढ़ना नहीं सिखाया
फ़िल्म भी दिखाया
कंचे भी खेलने को दिया।
कभी-कभी मीठा पान भी खिला दिया।
खुद कितना पूजा करते रहे,
मगर कभी कोई मंत्र याद करने को नहीं कहा।
पढ़ने के लिए कहा,
विषय के चयन को कभी प्रभावित नहीं किया।
खरच दिया जो कुछ भी कमाया,
कभी बचाया नहीं।
उड़ने को ऊंचा आसमान दिया
भरोसा मजबूत कंधे का।
कि जबकि जानते हैं
पचहत्तर पार के हो चुके हो।
हमें आज भी पूरा यकीन है
गिरने लगूंगा तो बचा ही लोगे,
रहूं दूर तुमसे 
चाहे कितना भी
दूगां जो आवाज़ कहीं से भी
हाथ बढ़ा ही दोगे।

रविवार, 12 जनवरी 2020

बानगी

बानगी।
------------

बौने ने
औने पौने तरीके से
ऊंची छलांग लगाई है।
हमारे दौर में ऐसी भी कविता आई है
कवि आगे नहीं बढ़ा है
कि 
(श्रोता ही कहो
पाठक होना
तो भुला दिया गया रस्म है)
श्रोता रुका पड़ा है
तुम जब बात करते हो तो
आंखे खोल के क्यों नहीं करते हो
अधखुली या बंद आंखों से
निकली कविता
नशा ही देती है
हमारी चेतना जगा नहीं पाती है।
तैंतीस देश
बिजनेस क्लास
फाइव स्टार प्रेसिडेंशियल सूट
नशा ही नहीं प्यास भी है।
नागार्जुन
गोरख
मुक्तिबोध
ही नहीं हुए हैं 
हिंदी में नामवर
सुना है कोई कुमार विश्वास भी है।