किसी के कहने से पहले
और
किसी के चुप हो जाने के बाद से
आहिस्ते आहिस्ते
अपना पाला बदलने में
सुविधाओं ने
इतने फिसलन बना दिए हैं
कि
सुर लगाना मुश्किल हो गया है।
जनता पकड़ ही लेती है
क्रांति के गीतों में छुपे
अभिजात आदेशों को
उसके मंसूबे को।
इतिहास लिख रहे लोगों को भी
इतिहास ने ही तैयार किया है ।
हम इतने बड़े बनिया हैं
कि
सदियों का हिसाब
सदियों में करते रहते हैं।
इतना बड़ा जोड़ है
और
इतना बड़ा घटाव है
कि
हम केवल
अपने समय के हिस्से में
उभरे सवाल को
हल करते हैं
और
उत्तर को
अगली सदी तक के लिए टाल देते हैं,
मगर
लेन-देन चलता रहता है
बिना किसी बाधा के।
होगा कोई अंतिम उत्तर
मगर सवाल तो एक ही है
जो लगातार बना हुआ है।
हर किसी के पास अपने-अपने शोषित-वंचित हैं,
अचूक निशाना पाने के लिए।
हर कौम के पास एक अपना डॉन है,
अस्मिता की रक्षा में
लोकतांत्रिक अधिकारों के साथ खड़ा।
नारे हैं
जुलूस है
कुछ लोग हाथों में लिए बंदूक हैं।
मिथकीय चरित्र
हमारी पहचान से इस तरह
गड्ड मड्ड हो चुका है
कि
रावण
परशुराम
महिषासुर
जरासंध
हनुमान
एकलव्य
आदि ने
राम और कृष्ण की तरह
अपने लिए अस्मिता की तलाश कर लिया है।
अहिल्या सीता उर्मिला शूर्पनखा और द्रोपदी
के साथ हुए अन्याय की
बात करते लोग
देवताओं को भी कटघड़े में खड़ा कर चुके हैं।
पौराणिक चरित्र ने ऐतिहासिक व्याख्या को
नई जुबान नया मुहावरा और नई गाली सीखा दी है।
धंधा या पेशा होने से पहले
जो कुछ भी लिखा गया था
ओथ लेकर
खारिज किया जा चुका है।
मगर इसका मतलब ये नहीं कि
आज जो वस्तुनिष्ठ शैली में
लिखा जाने का दावा किया जा रहा है,
वह बहुत अर्थवान है।
किस इतिहास को लिखा गया है,
किसको लिखवाया गया है,
किस इतिहास को बचाया गया है,
किसे दिखाया गया है,
किसे छुपाया गया है।
पुराने देवता पुरोहित की तरह
ये सब
किसी भी जम्हूरि हुक्मरान के लिए
आज भी
इतना ही अहम है
कि
मुंह से निवाला छीन
टुकड़े को चारों ओर फैलाने पड़ते हैं।
हम अकादमिक लेखन को खारिज करते हुए
बिना किसी
राज्य, राजा, पुरोहित, देवता और दार्शनिक के
अपने समय में
फुटपाथों पर बैठ
कतरनों में जो लिख रहे हैं
वही हमारे समय का इतिहास है।