ज.ने.वि.
तुम्हारे टापू
हमारी बेबसी पे उग आए लगते हैं।
अथवा हमारी बंजर जमीन लील रही है
आसमान को
हम तुम्हें टाट पे लगे मखमल के पैबंद से अधिक नहीं समझते
तुम अपने होने पे इतरा रहे हो।
हम अपने होने पे गुस्सा हैं।
तुम अपनी सहूलियत के लिए चिंतित हो।
हम अपनी जरूरतों के लिए चिल्ला रहे हैं।
हम चाहते हैं कि
तुम हममें पड़ो
और
फूट पड़ो
तिलस्मी साखों में।
फिर तुम तक पहुंचने की चिंता न रहे
हमारी इयत्ता जन्म से तुममें समायी रहे।
ओ दिल्ली के टीले पे बसे हरे जंगल
तुम फैल के हमतक चले क्यों नहीं आते।
तुम साकार हो।
हमारे यहां भी साकार हो जाओ।
जहॉं अरबों की आबादी अपने
कुछ न होने की जश्न में डूबे हैं।
तुम्हारी द्विजता खटकती है।
तुम्हारे अंगूर
हमारे लिए वाकई खट्टे हैं
मगर हमारी मक्के की रोटी बड़ी मीठी है।
तुम अंगूर खाते हो
फिर
शहंशाह
वजीर
काजी
कोतवाल
प्रोफेसर
दार्शनिक
क्रांतिकारी
मसीहा
बनकर चले आते हो।
और हम
सत्तू पीकर तुम्हें स्वीकार लेते हैं।
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