रविवार, 5 जून 2022

समय में भारी उलझन है

 कविता , 05/06/2022

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समय में भारी उलझन है,
लोग परेशान बहुत हैं,
इसलिए
काम भी बहुत है।
आदतन
सभी अपने हिस्से की बात को
सच मानने के लिए बाध्य हो चुके हैं।
खेल के नियम कुछ इस प्रकार
सख्त और पवित्र हो चुके हैं
कि
हमने अपने पक्ष को सच मान लिया है।
और जिसे हम गलत मानते हैं
उसे
मिथ्या मानने के लिए बाध्य हो चुके हैं।
अपने मूल स्वरूप में
सच क्या है और झूठ क्या है,
सही क्या है
और
गलत क्या है,
इसकी फिक्र करना
अनैतिक होने जैसा
सख्त बना दिया गया है,
अज्ञात के अनंत में हमने
जो कुछ
निश्चित स्थापित कर लिया है,
उस
सूक्ष्म अभौतिक तत्व
और
वैचारिक व्यवस्था को
सही मानते हुए
अज्ञात रास्ते को
ज्ञात
राजमार्ग, धर्ममार्ग बनाने की जिद में
वहशी बने जा रहे हैं।
सात घोड़े की लगाम को मुट्ठी में पकड़े
भागे जा रहे है,
बुर्राक पे उड़े जा रहे हैं।
अपने अलावे सभी को तौलते हुए
नापते हुए
अलग अलग ढेर में
हम
अलग अलग समय में लोगों को खड़ा करते हुए
हाँफ रहे हैं,
फिर भी रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं।
और
इस तरह हम खुद को
दुनिया का एकमात्र संवेदनशील, वैज्ञानिक
प्राणी मानने वालों की
जमात में
शामिल लोगों की पंक्ति में खड़ा पा रहे हैं।

शुक्रवार, 31 दिसंबर 2021

नए साल में।

 नए साल में

देखे तो

और भी 

देखने की कोशिश करें।

आँख खुद से बंद न करें।

कोई पूछे

इससे पहले

देखने की घोषणा कर दे।

देखे तो

करीब का भी देखे

दूर का भी।

और 

ध्यान रखें कि 

हमारे देखने से

दृश्य कदापि न बदले।


2.

हम सुनने लगें

वाकई इस तरह

कि

सुनाने वाले को हो भरोसा

कि

सुन ली गई है हमारी

वाकई।

सुने

तो वही सुने

जो बोला गया हो।

सुने 

उसकी भी

जो बोलना चाहता है,

मगर बुदबुदा ही पाता है।

और 

उसकी तो जरूर सुने

जिसे 

बोलने की मनाही है।


3.

हम बोलने लगें

जितना भी बोलें

उतना तो बोलें।

अपने लिए बोले

मगर 

उसके लिए जरूर बोलें।

जिन्होंने आपसे

देखने

सुनने और बोलने 

की उम्मीद बना रखी है।


4.

हम बोले कि जरूरी है

अब बोलना।

हम देखे कि जरूरी है

अब देखना।

हम सुने कि जरूरी है

अब सुनना।

बिना पक्ष लिए,

बिना विपक्ष हुए।

रविवार, 10 अक्तूबर 2021

आखिरी खत

 आखिरी खत

किसी के भी नाम नहीं
नियम से न तो शुरू हुआ और न खत्म।
लिफ़ाफ़े पे किसी का पता नहीं ।
अंदर के खत में
कोई
प्यारा
आदरणीय
पूजनीय
प्रिय नहीं ।
तुम्हारा अपना
सबसे प्यारा
आज्ञाकारी
आभारी
कुछ भी नहीं।
ना कोई त्राहिमाम संदेश
न खून से लिखा प्यार का पहला खत,
न शोक का टेलीग्राम,
न ही खुशी की खबर
न कोई शुभ समाचार ।
न विभागीय पत्र, सरकारी आदेश।
ये आखिरी खत है जिसे लिखते हुए पढ़ा गया
इसलिए
इसे कोई आखिरी भी इस तरह पढ़े कि लिखता रहे।
और तबतक बची रहे लिपि, वर्तनी, शब्द, व्याकरण।
समझ में आती रहे
आसपास की बगल की अपनों की भाषा।
यूं तो
समझ आनी बंद हो चुकी है
जिसके साथ हमारी वर्षों गुजरी है,
बचपन बीता है।
अब तो हम क्या बोलते हैं
और उसका मतलब क्या होता है।
इसपर गंभीर मतभेद
खेल खेल में
बच्चों के बीच भी अगर पैदा हो जाए
तो
बड़े इसपर मजबूती से स्टैन्ड लेते हैं।
घर के स्वामी औ पंचायत के मुखिया से लेकर
देश के रहनुमा तक
भाषा के वस्तुनिष्ठ अर्थ और व्याख्या
पर अपनी मंशा के अनुरूप
निष्कर्ष थोप देते हैं।
इसलिए
इस प्रार्थना के साथ
आइए
खत लिखना और पढ़ना शुरू करते हैं।
कि
आंखे बनी रहे
और बनी रहे रौशनी
पढ़ने वाले के पास
केवल हुनर ही न हो
आँसू भी हो
सुख और दुख वाले
कि
देवताओं को बनाते बनाते
हमनें बिगाड़ ली अपनी दुनिया
ऐसे सपनों में भरे रंग
कि
साबुत हाथ ही बेरंग हो गया
गेंहू उगाना
चित्रकारी करना
गीत गाना और
बाँसुरी बजाना
जिसने हल चलाना सीखा था
सरहदों की लकीरों ने उसे
हत्यारी कौम में बदल दिया
हमारी बर्बादी हमारा ही सबब है
भाषा, विज्ञान, साहित्य, इतिहास, दर्शन,
राजनीति, धर्म
सभ्यता ने केवल एक मुखौटा
उपलब्ध करवाया है
उसके पीछे वही चंगेजी चेहरा है
बात जब कौम पे चली आती है
ईश्वर अल्लाह से शुरू होते हुए
खून का क़तरा
जमीन का टुकड़ा
बादशाही गद्दी
अक्षौहिणी सेना
सब के सब
लीलने लगती है हरियाली
गति
स्वर
धुन
प्रार्थना
और दैहिक प्रेम
शिव शिव नहीं रहते
पार्वती स्त्री नहीं रहती
जितना सिखाया है
खुद को नहीं सिखाया
जो समझाना चाहते हैं
वही समझा रहे हैं
समझने की फुरसत नहीं है
पुरानी कोट मिली है
उसी में खुद को फिट करने में लगे हैं
दूरबीन से देखने के शापित लोग
कहते हैं
कितना फिट कोट बनाया है
यूनिवर्सल दर्जी ने
हर नस्ल हर मौसम की नाप
सही है।
व्यस्त हैं सभी
अपनी अपनी मरीचिका में
और दुनिया को बदलने की कवायद में
अपने अपने हिस्से की औजार से
कभी कस रहे हैं
कभी ढीला छोड़ रहे हैं।
लोग अपनी क्लास से नीचे नहीं उतरते
मगर नीचे वाले को याद दिलाते रहते हैं,
जा भाग
चिंटू
अपनेवालों के साथ खेलो।
शतरंज की इस बिसात पे
हम अपने राजा को चेकमेट करवा कर भी
मेडल जीतते हैं।
और
प्रजा का जौहर करवा के सिंहासन बचा लेते हैं।
.. .. .. .. .. जारी है।

मंगलवार, 13 अप्रैल 2021

वही हमारे समय का इतिहास है।

किसी के कहने से पहले  
और 
किसी के चुप हो जाने के बाद से 
आहिस्ते आहिस्ते 
अपना पाला बदलने में 
सुविधाओं ने 
इतने फिसलन बना दिए हैं 
कि 
सुर लगाना मुश्किल हो गया है।  
जनता पकड़ ही लेती है 
क्रांति के गीतों में छुपे 
अभिजात आदेशों को 
उसके मंसूबे को। 
इतिहास लिख रहे लोगों को भी  
इतिहास ने ही तैयार किया है । 
हम इतने बड़े बनिया हैं 
कि 
सदियों का हिसाब 
सदियों में करते रहते हैं।  
इतना बड़ा जोड़ है 
और 
इतना बड़ा घटाव है 
कि 
हम केवल 
अपने समय के हिस्से में 
उभरे सवाल को
हल करते हैं 
और 
उत्तर को 
अगली सदी तक के लिए टाल देते हैं,
मगर 
लेन-देन चलता रहता है
बिना किसी बाधा के।    
होगा कोई अंतिम उत्तर 
मगर सवाल तो एक ही है 
जो लगातार बना हुआ है। 
हर किसी के पास अपने-अपने शोषित-वंचित हैं, 
अचूक निशाना पाने के लिए। 
हर कौम के पास एक अपना डॉन है,
अस्मिता की रक्षा में 
लोकतांत्रिक अधिकारों के साथ खड़ा। 
नारे हैं 
जुलूस है 
कुछ लोग हाथों में लिए बंदूक हैं। 
मिथकीय चरित्र 
हमारी पहचान से इस तरह 
गड्ड मड्ड हो चुका है
कि  
रावण 
परशुराम 
महिषासुर 
जरासंध 
हनुमान 
एकलव्य 
आदि ने 
राम और कृष्ण की तरह 
अपने लिए अस्मिता की तलाश कर लिया है। 
अहिल्या सीता उर्मिला शूर्पनखा और द्रोपदी 
के साथ हुए अन्याय की 
बात करते लोग  
देवताओं को भी कटघड़े में खड़ा कर चुके हैं।
पौराणिक चरित्र ने ऐतिहासिक व्याख्या को 
नई जुबान नया मुहावरा और नई गाली सीखा दी है।  
धंधा या पेशा होने से पहले 
जो कुछ भी लिखा गया था 
ओथ लेकर 
खारिज किया जा चुका है। 
मगर इसका मतलब ये नहीं कि 
आज जो वस्तुनिष्ठ शैली में 
लिखा जाने का दावा किया जा रहा है,
वह बहुत अर्थवान है। 
किस इतिहास को लिखा गया है, 
किसको लिखवाया गया है, 
किस इतिहास को बचाया गया है, 
किसे दिखाया गया है, 
किसे छुपाया गया है। 
पुराने देवता पुरोहित की तरह  
ये सब 
किसी भी जम्हूरि हुक्मरान के लिए 
आज भी 
इतना ही अहम है 
कि 
मुंह से निवाला छीन 
टुकड़े को चारों ओर फैलाने पड़ते हैं। 
हम अकादमिक लेखन को खारिज करते हुए
बिना किसी 
राज्य, राजा, पुरोहित, देवता और दार्शनिक के 
अपने समय में 
फुटपाथों पर बैठ 
कतरनों में जो लिख रहे हैं 
वही हमारे समय का इतिहास है।

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2021

वाह वाह

आपका स्तर क्या है
इससे पहले कि 
कविता का स्तर देखा जाए
कविता के शील,गुण, कौमार्य का परीक्षण हो
इससे पहले आप बता दें
जनाब
'आर यू वर्जिन??'
हमारी बहकी हुई कविता तो 
अरसा पहले हाथों से छूटकर
आमलोगों की बस्ती में चली गई
और
अपने ही मिजाज में-
बोलती है।
चिल्लाती है।
गुर्राती है।
रोती है।
मगर
कभी गाती नहीं है-
कोई ठुमरी कोई भजन।
कमबख्त मुँहजली ने
कभी कमाने का मौका नहीं दिया।
कितने अरमानों से इसे लिखा था
कि
कम से कम
मुँहमाँगी कीमत मिलेगी
मगर 
कमबख्त कुछ एक चुटकुले ने
लफ्जों की लफ्फाजी का मेकअप
किए
बूढ़े थुलथुल साहित्यिक जमींदार का
हवस पूरा कर दिया।
और
शातिर बापनुमा उसका काना दलाल
फिर से 
वाह-वाह हो गया।

रविवार, 20 दिसंबर 2020

मौत तो कविता की भी होती है

तमीजदार भाषा
सेवक की भाषा
आपकी जगह लेट जाती है
तानाशाहों के बिस्तर पर
फिर पैदा होती है
एक कवि की कविता
एक लेखन की रचना
महाकाव्य
इतिहास
जीवनगाथा
पवित्र किताब
अंतिम भी
और कुछ पात्र 
महान चरित्र बन जाते है.
और
गुलामों को 
एक आदर्श के रूप में 
हमेशा याद हो जाता है
मर्यादा बोध,कर्म सिद्धांत से लेकर
आसमानी संदेश तक
उसी तरह उगते हैं
जिस तरह 
पैदा हुआ करता था
एक दासी की कोख से
कुलीन वंश का अंश.
हम आज में भटकते हैं
और खो जाते हैं
अतीत के अंधेरों में
हाथी किसी को कान नज़र आता है
किसी को पांव
और फिर हमारे अंदर का बाणभट्ट
एक हर्ष को खोज लेता है
मुद्दा ये नहीं है कि
झूठ बोला जाता है
लिखा जाता है
दरअसल हमें तैयार किया जाता है
हर युग में
बिना सोचे
बिना बोले
बिना देखे
मानने 
मानने 
मानने के लिए
हर विचारक किसी न किसी की हत्या करता है
हर क्रांति  से कुछ आजादी छिनती है
हर पुरस्कार वफादारी का इनाम होता है
हर चैरिटी का एक मिशन होता है
हर सुधारक कुछ बिगाड़ के चला जाता है
हमारे हिस्से
जो होती है
कुछ देर की सांस
कुछ पल की रौशनी
उसे
थोड़ी सी नमी में बो के
अपने शक्ल से मिलता-जुलता
शक्ल उगा कर
धरती को जगाए रखते हैं
एक वक़्त ऐसा भी आता है
जब सबकुछ व्यर्थ प्रतीत होता है
सब बीमार नजर आते हैं
सारे फूल कुम्हलाए
सारे रिश्तें बिखरे नज़र आते हैं
महामानव भी
आम आदमी की तरह चला जाता है
भले ही हम कितना भी 
राष्ट्रीय शोक मना लें.
तुम मानो या न मानो
मौत तो कविता की भी होती है।

मंगलवार, 15 दिसंबर 2020

समय ठहरा रहेगा तब तक

पूरी गर्मजोशी के साथ
मैं उस क्षण
भी
करूँगा तुम्हारा स्वागत
जब
शरीर मुर्झा चुका होगा।
आँखों ने बोलना
और
मस्तिष्क ने समझाना
बंद कर दिया होगा।
एक-एक कर ढेरों
कैलेंडर
उतर चुके होंगे दीवार से .
मैं दीवार पर
एक नया कैलेंडर खिलाऊंगा।
और फूलदान से
रोज की भांति
बासी फूलों को निकाल
उसमें
ताजे फूलों के साथ
शेष बची जिंदगी को भी
तुम्हारे लिए
सजा दूंगा.
समय ठहरा रहेगा तब तक.