शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

जो धुँआ उठ रहा है

जब पहचान ही खतरा हो
और भीड़ दंगाई हो
शब्द चुप हो जाते है
मादरे - जुबान की
हम दुबकते हैं नकली खाल में
दोस्त और दुश्मन की सरहद
लथपथ राहों को रोक देती है
फिर क्या गरज
कि
जो धुँआ उठ रहा है
उसमे स्वाद है रोटी के बनने की
या दुर्गन्ध है
चूल्हे के जलने की .

3 टिप्‍पणियां:

  1. जब पहचान ही खतरा हो
    और भीड़ दंगाई हो
    शब्द चुप हो जाते है
    मादरे - जुबान की
    सुंदर अतिसुन्दर , कई अर्थों को अपने में समाये हुई रचना, बधाई

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  2. अच्छी और विचारणीय प्रस्तुती...

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  3. Dr sahab,
    samajik sarokaar ki is kavita ke liye dhanyawad.yadi "chulhe" ki jagah "ghar" likha hota to jydaa sateek na hota?

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