गुरुवार, 26 मई 2011

तरक्की पसंद कविता

वाममोर्चा को समर्पित :-
तरक्की पसंद कविता
केवल
राजा को ही
क्यों
घेरे?
क्या
कुछ
कम गलती है
मेरे
तेरे?
राजा एक हो सकता है
या
सात हज़ार सात सौ सात
पर
परजा की बात
तो
करोड़ों में जाती है
फिर भी
नयी रौशनी नहीं आती है.
राजा के
सेवक
लठैत
मुनीम
गुमाश्ता
पंडित
हरकारा
में हम नहीं है.
राजा का उतरन
पहनने वाला
कम नहीं है.
बाहर
राजा जिसे अखरता है.
घर में
राजा की नक़ल नहीं करता है.
बाहर
अराजकता
लूट
अन्याय
का शोर है.
पर
सच पूछो तो
हमारे अन्दर भी एक चोर है
जो
भूख के नाम पर
छीन लाये रोटी को
खुद डकार जाता है.
मगर
वादे
लेनिन की करता है.
कसमें
माओ की खाता है.


सोमवार, 16 मई 2011

भटकते भटकते

भटकते भटकते
चाहा था अटकते
किस्मत का साथ मिलता
तो हम भी लटकते
ऑफिस के बाबु की तरह
हम भी झटकते
बातों से जीतते
चालों से पटकते
चारा भी खाते
तेल भी गटकते
जीवन भी जीते
मटकते मटकते 

हँस ले गा ले

हँस ले गा ले
तेरी खुशी मेरे पास
आ ले
गम अपना हो या पराया
कौन पाले
अपनी मस्ती
फुटपाथ पे बसती
बिन चाबी बिन ताले
इस अमीरी पे मैं ही लुटा हूँ
चैन चाहिये तो
खुद को
तू भी लुटा ले