शनिवार, 14 जुलाई 2012

(लघुकथा)
काफिरे समझ लिए हो क्या?
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रहमत जब बड़े दिनों बाद गाँव लौटा तो उसकी मुलाकात बचपन के दोस्त बन्ने मियाँ से अचानक हो गई। दोनों काफी खुश हुए। बातचीत बचपन के दिनों से शुरू होकर आज तक पहुँच गई। रहमत ने पूछा- बन्ने तूने तो दाढ़ी बढ़ा ली है, दीनो करम पर मेहरबान हो रहे हो। बन्ने ने कहा - अरे नहीं बात तो असल में ये है कि अब हजामत चवन्नी में तो होती नहीं है, कम से कम दस टके ल...गते हैं तो सोचा क्यों न दाढ़ी बढ़ा ही लूं। पैसे भी बचेंगे और दीन का काम भी हो जाएगा। इस पर रहमत ने पूछा- नमाज़ तो पढ़ते ही होगे और मस्ज़िद भी जाते होगे। 'रोज-रोज कहाँ पढ़ पाता हूँ, भाई मज़दूर आदमी हूँ, दिन भर काम करने के बाद तो किसी काम का नहीं रह पाता। पाँचों वक्त का नमाज़ तो वे पढ़ते हैं जो मालदार हैं। जिनका शरीर नहीं हिलता वे ही नमाज़ के लिए हिलते हैं। अलबत्ता जुम्मे के दिन कोशिश करता हूँ कि मस्जिद चला जाऊँ।'- बन्ने ने कहा। इसपर रहमत ने पूछा- रोजा तो रखते होगे। बन्ने ने जबाव दिया- भाई रोज-रोज रोजा रखेंगे तो परिवार कहाँ से खाएगा। अल्ला मियाँ माफ करे, अगर भूखा रहा तो ना हाथ गाड़ी खींच सकता हूँ और ना सामान ही उठा सकता हूँ । मगर खुदा का खौफ मुझे भी है, कयामत के दिन मुझे भी जबाव देना है इसलिए बड़ी मुश्किल से एक-दो रोजा रख लेता हूँ। रहमत ने कहा- फिर तो तुम्हारे लिए जकात करना भी काफी मुश्किल होगा। 'ठीक कहा, जिसे यह नहीं पता कि कल क्या खाएंगे वे जकात कहाँ से करे- बन्ने ने सहमति के स्वर में कहा। चलते- चलते रहमत ने पूछा- भाई महँगाई भी तो काफी बढ़ गई है। अच्छा बताओ 'बड़का' (गाय का गोश्त)खाते हो कि नहीं? इस पर बन्ने ने तल्खी से कहा- कैसी बात करते हो रहमत मियाँ , काफिरे समझ लिए हो क्या?