सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

हिन्दी साहित्य का इतिहास (thnx to wikipedia)

हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन को यदि आरंभिक, मध्य व आधुनिक काल में विभाजित कर विचार किया जाए तो स्पष्ट होता है कि हिन्दी साहित्य का इतिहास अत्यंत विस्तृत व प्राचीन है। हिन्दी भाषा के उद्भव और विकास के सम्बन्ध में प्रचलित धारणाओं पर विचार करते समय हमारे सामने हिन्दी भाषा की उत्पत्ति का प्रश्न दसवीं शताब्दी के आसपास की प्राकृताभास भाषा तथा अप्रभंश भाषाओं की ओर जाता है। अपभ्रंश शब्द की व्युत्पत्ति और जैन रचनाकारों की अपभ्रंश कृतियों का हिन्दी से सम्बन्ध स्थापित करने के लिए जो तर्क और प्रमाण हिन्दी साहित्य के इतिहास ग्रन्थों में प्रस्तुत किये गये हैं उन पर विचार करना भी आवश्यक है। सामान्यतः प्राकृत की अन्तिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिन्दी साहित्य का आविर्भाव स्वीकार किया जाता है। उस समय अपभ्रंश के कई रूप थे और उनमें सातवीं-आठवीं शताब्दी से ही पद्य रचना प्रारम्भ हो गयी थी।
साहित्य की दृष्टि से पद्यबद्ध जो रचनाएँ मिलती हैं वे दोहा रूप में ही हैं और उनके विषय, धर्म, नीति, उपदेश आदि प्रमुख हैं। राजाश्रित कवि और चारण नीति, श्रृंगार, शौर्य, पराक्रम आदि के वर्णन से अपनी साहित्य-रुचि का परिचय दिया करते थे। यह रचना-परम्परा आगे चलकर शैरसेनी अपभ्रंश या प्राकृताभास हिन्दी में कई वर्षों तक चलती रही। पुरानी अपभ्रंश भाषा और बोलचाल की देशी भाषा का प्रयोग निरन्तर बढ़ता गया। इस भाषा को विद्यापति ने देसी भाषा कहा है, किन्तु यह निर्णय करना सरल नहीं है कि हिन्दी शब्द का प्रयोग इस भाषा के लिए कब और किस देश में प्रारम्भ हुआ। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्रारम्भ में हिन्दी शब्द का प्रयोग विदेशी मुसलमानों ने किया था। इस शब्द से उनका तात्पर्य भारतीय भाषा का था।आरंभिक काल से लेकर आधुनिक व आज की भाषा में आधुनिकोत्तर काल तक साहित्य इतिहास लेखकों के नाम शताधिक गिनाये जा सकते हैं । हिन्दी साहित्य के इतिहास शब्दबद्ध करने का प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण था।

आरंभिक काल

आरंभिक काल में मात्र कवियों के सूची संग्रह को इतिहास रूप में प्रस्तुत कर दिया गया। भक्तमाल आदि ग्रंथों में यदि भक्त कवियों का विवरण दिया भी गया तो धार्मिक दृष्टिकोण तथा श्रध्दातिरेक की अभिव्यक्ति के अतिरिक्त उसकी और कुछ उपलब्धि नहीं रही। 19वीं सदी में ही हिन्दी भाषा और साहित्य दोनों के विकास की रूपरेखा स्पष्ट करने के प्रयास होने लगे। प्रारंभ में निबंधों में भाषा और साहित्य का मूल्यांकन किया गया जिसे एक अर्थ में साहित्य के इतिहास की प्रस्तुति के रूप में भी स्वीकार किया गया। डॉ. रूपचंद पारीक, गार्सा-द-तासी के ग्रंथ इस्त्वार द ल लितरेत्यूर ऐन्दूई ऐन्दूस्तानी को हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास मानते हैं। उन्होंने लिखा है - हिन्दी साहित्य का पहला इतिहास लेखक गार्सा-द-तासी हैं, इसमें संदेह नहीं है। परंतु डॉ.किशोरीलाल गुप्त का मंतव्य है- तासी ने अपने ग्रंथ को हिन्दुई और हिन्दुस्तानी साहित्य का इतिहास कहा है, पर यह इतिहास नहीं हैं, क्योंकि इसमें न तो कवियों का विवरण काल क्रमानुसार दिया गया है, न काल विभाग किया गया है और अब काल विभाग ही नहीं है तो प्रवृत्ति निरूपण की आशा ही कैसे की जा सकती है। वैसे तासी और सरोज को हिन्दी साहित्य का प्रथम और द्वितीय इतिहास मानने वालों की संख्या अल्प नहीं है परंतु डॉ. गुप्त का विचार है कि ग्रियर्सन का द माडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास है।डॉ.रामकुमार वर्मा ने इसके विपरीत अनुसंधानात्मक प्रवृत्ति की दृष्टि से तासी के प्रयास को अधिक महत्वपूर्ण निरूपित किया है।

पाश्चात्य और प्राच्य विद्वानों ने हिन्दी के इतिहास लेखन के आरंभिक काल में प्रशंसनीय भूमिका निभाई है। शिवसिंह सरोज साहित्य इतिहास लेखन के अनन्य सूत्र हैं। हिन्दी के वे पहले विद्वान हैं जिन्होंने हिन्दी साहित्य की परंपरा के सातत्य पर समदृष्टि डाली है। अनन्तर मिश्र बंधुओं ने साहित्यिक इतिहास तथा राजनीतिक परिस्थितियों के पारस्परिक संबंधों का दर्शन कराया। डॉ. सुमन राजे के शब्दों में - काल विभाजन की दृष्टि से भी विश्वबंधु विनोद प्रगति की दिशा में बढ़ता दिखाई देता है।

नया युग

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य का प्रथम व्यवस्थित इतिहास लिखकर एक नये युग का समारंभ किया। उन्होंने लोकमंगल व लोक-धर्म की कसौटी पर कवियों और कवि-कर्म की परख की और लोक चेतना की दृष्टि से उनके साहित्यिक अवदान की समीक्षा की। यहीं से काल विभाजन और साहित्य इतिहास के नामकरण की सुदृढ़ परंपरा का आरंभ हुआ। इस युग में डॉ. श्याम सुन्दर दास, रमाशंकर शुक्ल 'रसाल', सूर्यकांत शास्त्री, अयोध्या सिंह उपाध्याय, डॉ. रामकुमार वर्मा, राजनाथ शर्मा प्रभृति विद्वानों ने हिन्दी साहित्य के इतिहास विषयक ग्रंथों का प्रणयन कर स्तुत्य योगदान दिया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने शुक्ल युग के इतिहास लेखन के अभावों का गहराई से अध्ययन किया और हिन्दी साहित्य की भूमिका (1940 ई.), हिन्दी साहित्य का आदिकाल (1952 ई.) और हिन्दी साहित्य; उद्भव और विकास (1955 ई.) आदि ग्रंथ लिखकर उस अभाव की पूर्ति की। काल विभाजन में उन्होंने कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया। शैली की समग्रता उनकी अलग विशेषता है।

आधुनिक काल

वर्तमान युग में आचार्य द्विवेदी के अतिरिक्त साहित्येतिहास लेखन में अन्य प्रयास भी हुए परंतु इस दिशा में विकास को अपेक्षित गति नहीं मिल पाई। वैसे डॉ. गणपति चंद्र गुप्त, डॉ. रामखेलावन पांडेय के अतिरिक्त डॉ. लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय, डॉ. कृष्णलाल, भोलानाथ तथा डॉ. शिवकुमार की कृतियों के अतिरिक्त काशी नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी द्वारा प्रकाशित हिन्दी साहित्य का इतिहास एवं डॉ नगेन्द्र के संपादन में प्रकाशित हिन्दी साहित्य का इतिहास आधुनिक युग की उल्लेखनीय उपलब्धियां हैं। हरमहेन्द्र सिंह बेदी ने भी हिन्दी साहित्येतिहास दर्शन की भूमिका लिखकर साहित्य के इतिहास और उसके प्रति दार्शनिक दृष्टि को नये ढंग से रेखांकित किया है।

हिंदी साहित्य के इतिहासकार और उनके ग्रंथ

हिंदी साहित्य के मुख्य इतिहासकार और उनके ग्रंथ निम्नानुसार हैं -

1. गार्सा द तासी : इस्तवार द ला लितेरात्यूर ऐंदुई ऐंदुस्तानी (फ्रेंच भाषा में; फ्रेंच विद्वान, हिंदी साहित्य के पहले इतिहासकार)

2. शिवसिंह सेंगर : शिव सिंह सरोज

3. जार्ज ग्रियर्सन : द मॉडर्न वर्नेक्यूलर लिट्रैचर आफ हिंदोस्तान

4. मिश्र बंधु : मिश्र बंधु विनोद

5. रामचंद्र शुक्ल : हिंदी साहित्य का इतिहास

6. हजारी प्रसाद द्विवेदी : हिंदी साहित्य की भूमिका; हिंदी साहित्य का आदिकाल; हिंदी साहित्य :उद्भव और विकास

7. रामकुमार वर्मा : हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास

8. धीरेन्द्र वर्मा : हिंदी साहित्य

9. डॉ नगेन्द्र : हिंदी साहित्य का इतिहास; हिंदी वांड्मय 20वीं शती

10. रामस्‍वरूप चतुर्वेदी : हिन्‍दी साहित्‍य और संवेदना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1986

11. बच्‍चन सिंह : हिन्‍दी साहित्‍य का दूसरा इतिहास, राधाकृष्‍ण प्रकाशन, नई दिल्‍ली,

हिन्दी एवं उसके साहित्य का इतिहास

संस्कृत का उद्गम

अपभ्रंश तथा आदि हिन्दी का विकास

  • ४०० - कालीदास ने "विक्रमोर्वशीयम्" अपभ्रंश में लिखी।
  • ५५० - वल्लभी के दर्शन में अपभ्रंश का प्रयोग।
  • ७६९ - सिद्ध सरहपद (जिन्हें हिन्दी का पहला कवि मानते हैं) ने "दोहाकोश" लिखी।
  • ७७९ - उदयोतन सुरी कि "कुवलयमल" में अपभ्रंश का प्रयोग।
  • ८०० - संस्कृत में बहुत सी रचनायें लिखी गयीं।
  • ९९३ - देवसेन की "शवकचर" (शायद हिन्दी की पहली पुस्तक)।
  • ११०० - आधुनिक देवनागरी लिपि का प्रथम स्वरूप।
  • ११४५-१२२९ - हेमचंद्राचार्य ने अपभ्रंश व्याकरण की रचना की।

अपभ्रंश का अस्त तथा आधुनिक हिन्दी का विकास

  • १२८३ - अमीर ख़ुसरो की पहेली तथा मुकरियां में "हिन्दवी" शव्द का सर्वप्रथम उपयोग।
  • १३७० - "हंसवाली" की आसहात ने प्रेम कथाओं की शुरुआत की।
  • १३९८-१५१८ - कबीर की रचनाओं ने निर्गुण भक्ति की नींव रखी।
  • १४००-१४७९ - अपभ्रंश के आखरी महान कवि रघु
  • १४५० - रामानन्द के साथ "सगुण भक्ति" की शुरुआत।
  • १५८० - शुरुआती दक्खिनी का कार्य "कालमितुल हकायत्" -- बुर्हनुद्दिन जनम द्वारा।
  • १५८५ - नवलदास ने "भक्तामल" लिखी।
  • १६०१ - बनारसीदास ने हिन्दी की पहली आत्मकथा "अर्ध कथानक्" लिखी।
  • १६०४ - गुरु अर्जुन देव ने कई कवियों की रचनाओं का संकलन "आदि ग्रन्थ" निकाला।
  • १५३२ -१६२३ गोस्वामी तुलसीदास ने "रामचरित मानस" की रचना की।
  • १६२३ - जाटमल ने "गोरा बादल की कथा" (खडी बोली की पहली रचना) लिखी।
  • १६४३ - रामचन्द्र शुक्ल ने "रीति" के द्वारा काव्य की शुरुआत की।
  • १६४५ - उर्दू का आरंभ।

आधुनिक हिन्दी


1 टिप्पणी:

  1. पहले पता नहीं था डॉक्टर साहब यहाँ तो काफी मैटर मिल जाता,.,.!!

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