रविवार, 10 अक्टूबर 2021

आखिरी खत

 आखिरी खत

किसी के भी नाम नहीं
नियम से न तो शुरू हुआ और न खत्म।
लिफ़ाफ़े पे किसी का पता नहीं ।
अंदर के खत में
कोई
प्यारा
आदरणीय
पूजनीय
प्रिय नहीं ।
तुम्हारा अपना
सबसे प्यारा
आज्ञाकारी
आभारी
कुछ भी नहीं।
ना कोई त्राहिमाम संदेश
न खून से लिखा प्यार का पहला खत,
न शोक का टेलीग्राम,
न ही खुशी की खबर
न कोई शुभ समाचार ।
न विभागीय पत्र, सरकारी आदेश।
ये आखिरी खत है जिसे लिखते हुए पढ़ा गया
इसलिए
इसे कोई आखिरी भी इस तरह पढ़े कि लिखता रहे।
और तबतक बची रहे लिपि, वर्तनी, शब्द, व्याकरण।
समझ में आती रहे
आसपास की बगल की अपनों की भाषा।
यूं तो
समझ आनी बंद हो चुकी है
जिसके साथ हमारी वर्षों गुजरी है,
बचपन बीता है।
अब तो हम क्या बोलते हैं
और उसका मतलब क्या होता है।
इसपर गंभीर मतभेद
खेल खेल में
बच्चों के बीच भी अगर पैदा हो जाए
तो
बड़े इसपर मजबूती से स्टैन्ड लेते हैं।
घर के स्वामी औ पंचायत के मुखिया से लेकर
देश के रहनुमा तक
भाषा के वस्तुनिष्ठ अर्थ और व्याख्या
पर अपनी मंशा के अनुरूप
निष्कर्ष थोप देते हैं।
इसलिए
इस प्रार्थना के साथ
आइए
खत लिखना और पढ़ना शुरू करते हैं।
कि
आंखे बनी रहे
और बनी रहे रौशनी
पढ़ने वाले के पास
केवल हुनर ही न हो
आँसू भी हो
सुख और दुख वाले
कि
देवताओं को बनाते बनाते
हमनें बिगाड़ ली अपनी दुनिया
ऐसे सपनों में भरे रंग
कि
साबुत हाथ ही बेरंग हो गया
गेंहू उगाना
चित्रकारी करना
गीत गाना और
बाँसुरी बजाना
जिसने हल चलाना सीखा था
सरहदों की लकीरों ने उसे
हत्यारी कौम में बदल दिया
हमारी बर्बादी हमारा ही सबब है
भाषा, विज्ञान, साहित्य, इतिहास, दर्शन,
राजनीति, धर्म
सभ्यता ने केवल एक मुखौटा
उपलब्ध करवाया है
उसके पीछे वही चंगेजी चेहरा है
बात जब कौम पे चली आती है
ईश्वर अल्लाह से शुरू होते हुए
खून का क़तरा
जमीन का टुकड़ा
बादशाही गद्दी
अक्षौहिणी सेना
सब के सब
लीलने लगती है हरियाली
गति
स्वर
धुन
प्रार्थना
और दैहिक प्रेम
शिव शिव नहीं रहते
पार्वती स्त्री नहीं रहती
जितना सिखाया है
खुद को नहीं सिखाया
जो समझाना चाहते हैं
वही समझा रहे हैं
समझने की फुरसत नहीं है
पुरानी कोट मिली है
उसी में खुद को फिट करने में लगे हैं
दूरबीन से देखने के शापित लोग
कहते हैं
कितना फिट कोट बनाया है
यूनिवर्सल दर्जी ने
हर नस्ल हर मौसम की नाप
सही है।
व्यस्त हैं सभी
अपनी अपनी मरीचिका में
और दुनिया को बदलने की कवायद में
अपने अपने हिस्से की औजार से
कभी कस रहे हैं
कभी ढीला छोड़ रहे हैं।
लोग अपनी क्लास से नीचे नहीं उतरते
मगर नीचे वाले को याद दिलाते रहते हैं,
जा भाग
चिंटू
अपनेवालों के साथ खेलो।
शतरंज की इस बिसात पे
हम अपने राजा को चेकमेट करवा कर भी
मेडल जीतते हैं।
और
प्रजा का जौहर करवा के सिंहासन बचा लेते हैं।
.. .. .. .. .. जारी है।