गुरुवार, 24 अक्तूबर 2019

अपवित्र हो चुका हूं।


संस्कारों के साथ
आपने पाला था।
पंडितों की भाषा में 
आपने रचवाई थी
कुंडली
पूरे अनुष्ठान के साथ
विधि विधान
के दायरे 
एक एक कर
सोलह संस्कार तक पहुंचने से पहले
ही
अपवित्र हो गया मैं।
जब देखा कोई
मुझे नहीं छू सकता
किसी को 
मैं नहीं छू सकता।
जब देखा
मंदिरो का दरवाजा एक सा नहीं खुलता।
जब देखा
एक सा मंत्र नहीं है सबके लिए
एक सी भाषा नहीं है
है एक कोई देववाणी
जिसे सब नहीं पढ़ सकते
सुन भी नहीं सकते
ईश्वर ने कुछ को अपने जैसा बना दिया
मगर सबको नहीं बनाया अपने जैसा।
ईश्वर जैसा जो नहीं थे
उनके जैसा ही खुद को पाया।
इतिहास के दो पन्नों के बीच में
दफ़न कर दिए गए 
एक बड़े समाज और समय को
जिसे आज भी नहीं तलाश रहे
अकादमिक लोग
में अपनी सांस के स्पंदन को महसूस कर रहा हूँ
मैं
सुनो, मैं अपवित्र हो चुका हूँ।
तुम्हारी भाषा
तुम्हारे मंत्र
तुम्हारे संस्कारों में
तुम्हारे विधानों में
अपवित्रता में ही अब मेरी मुक्ति है।
मेरा देवता मेरे साथ प्रकट हो रहा है।
मेरे साथ ही मेरे देवता को भी मुक्ति मिल रही है
अब कहानी में भी मेरा देवता कुलीन नहीं होगा
द्विज भी नही
और न ही पुरुष
मेरा देवता 
तराशे गए चट्टानों से बने 
विशाल भवनों ने संदेश नहीं देगा
मेरा देवता डरायेगा नहीं
पिछले हजारों साल से
डर ने मंत्रो और ताबीज के सहारे
हमें दबा रखा है
हमारी खुशी को
पर्दा थमा दिया
या फिर गाँव का बाहरी हिस्सा।
बिना छल से
बिना मंत्र से
बिना शस्त्र और अस्त्र से
अपने अपवित्र होने का जश्न 
हम मनाएंगे अपने हाशिये पे खड़े होके
जहाँ से तुम्हारी बड़ी दुनिया सिकुड़ती हुई
दिखती है।

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