रविवार, 31 अक्टूबर 2010
माँ की बाँहों में
माँ सी धरती
शुक्रवार, 29 अक्टूबर 2010
फिर तुम्हारी याद दस्तक हुई सी जाती है
दस्तक हुई सी जाती है
और
सिरहाने में सोये
किताब के पन्ने
जी उठते हैं
मेरे जीवन में घटी
जिन घटनाओ के नीचे
लाल स्याही से
तुमने एक लकीर डाली थी
महत्वपूर्ण
हर वह वाकया
इसी किताब में तो रहता है
जिसके हर पन्ने पर
चाँद अपनी चाँदनी
बिखेरता रहता है
फूल
खुद ही आकर
जहाँ खिल उठते हैं
बहार
पूरे बरस बनी रहती है
तुम्हारी याद
इसी कारण
अपनी छुट्टियाँ मनाती है
इस
किताब को जगाकर.
बुधवार, 27 अक्टूबर 2010
कल के चूल्हे के लिए.
कल के चूल्हे के लिए.
तुम शहर में वापस आ गयी हो . ( once more)
मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010
संजीवनी है तुम्हारी आहट
संजीवनी है तुम्हारी आहट
जिससे जिन्दा होती है
मेरी वैयक्तिकता
मै जो करते-करते कार्य
हो जाता हूँ यंत्र,
तब
सामान्य होने का सुख बटोरता हूँ
जब तुम देती हो
एक छोटी आवाज़
झील के उस पार से
इधर
कमरे में ताज़ी हवा घुस आती है
पुस्तकों में सिमटे शब्द
बिस्तर पर उतर आते हैं
और
मैं करीने से पलटता हूँ
फिर से
अपनी जिंदगी की किताब को
दुनिया की असंख्य संबोधनों में से
यह एक काफी है
जो मुझे मरने नहीं देगी
खास मेरे लिए
जब एक स्वर तैरती है
तुम्हारी
मंदिर में बजती है
भोर की घंटी
नदी में उठती है
कुंवारी लहर
हवा
सोये फूलों को जगा जाती है
और मैं
फिर से गढ़ता हूँ
एक परिभाषा
अपने लिए
क्योंकि
जिंदगी ने कम ही दिए हैं
ऐसे मौके
जब मेरी संवेदना
मेरे शरीर को महसूस करती है .
शनिवार, 23 अक्टूबर 2010
जो धुँआ उठ रहा है
शुक्रवार, 22 अक्टूबर 2010
मुफलिसी की नवाबी
यदि आप यह दावा करते हैं
मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010
तुम शहर में वापस आ गयी हो .
कुछ शब्द
कुछ शब्द
तुम्हे सौंपा था
मैंनेअपना समझ कर
और
तुम्हारे हाथ से
वे छिटक गए
क्योंकि
उनका अर्थ लगाना आसान था
पगडण्डी
घर मेरा बसा है
बस्ती से दूर किसी के पास
जिसके चारो ओर पगडण्डी है
यादों की
जिससे होकर गुजरना
जिंदगी को कई बार जीना है
रविवार, 17 अक्टूबर 2010
मोहल्ला live से साभार
निष्पक्ष दृष्टिकोण जैसी कोई चीज नहीं होती
एडवर्ड सईद (1 नवंबर, 1935 – 25 सितंबर, 2003) लंबे समय तक कोलंबिया विश्वविद्यालय में अंग्रेजी भाषा और तुलनात्मक साहित्य के प्रोफेसर रहे। फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के लिए राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में काम करने वाले सईद की प्रतिष्ठा उत्तर-औपनिवेशिक सिद्धांतकार व साहित्य-आलोचक के रूप में है।
बुद्धिजीवियों की भूमिका पर एडवर्ड सईद
जहां तक मेरा सवाल है बौद्धिक योग्यता बीए की डिग्री लेने या पीएचडी पूरी कर लेने या कुछ भी ऐसी उपलब्धि हासिल कर लेने से, जिसे शिक्षा कहा जाए, बिलकुल अलग है। बौद्धिक योग्यता एक भिन्न चीज है। यह बाद में तब पैदा होती है, जब हम विश्वविद्यालय छोड़कर समाज के नागरिक बनते हैं।
एक अरसे से यह मेरा विश्वास रहा है कि बुद्धिजीवी की भूमिका जड़ता को तोड़ने, सवाल उठाने तथा ऐसी बातें कहने की होती है जिसे दूसरे लोग नहीं कहेंगे, तथा जो स्थितियां हैं, जानी समझी जिनके साथ तालमेल बैठा कर हममें से ज्यादातर लोग जीते हैं, उनके आगे जाने की हिम्मत बुद्धिजीवी दिखाते हैं। महान अमेरिकी समाज शास्त्रीय सी राइट मिल्स का कहना है – ‘स्वतंत्र बुद्धिजीवी उन गिनीचुनी हस्तियों में से होता है, जो जीवन को एक सांचे में ढालकर उसे निर्जीव बनाने की प्रक्रिया का प्रतिरोध करता है तथा उसके खिलाफ संघर्ष करने के लिए तैयार रहता
है।’
नये विचारों में दृष्टि व बुद्धि के रूढ़िवाद को, जो हमें दलदल में फंसाते हैं, लगातार बेनकाब करने तथा तोड़ने की क्षमता होती हैं। कभी कभी हमें महसूस होता है कि हम खबरों के समुद्र में डूब रहे हैं, कभी कभी ये खबरें अतंर्विरोधी तथा आमतौर पर दुहराव भरी व एक खास आग्रह से युक्त होती है। लोक कला व लोक चिंतन के ये क्षेत्र राजनीति व स्वार्थ के मांगों के अनुरूप तेजी से ढल रहे हैं। समाचार पत्रों व सरकार में बेठे लोगों के बयानों में से यह सब चीजें विश्व स्तर पर देखने को मिलती हैं। चाहे वे टीवी इश्तेहार हो, टीवी समाचार हो या वृत्तचित्र हो लोक प्रतिनिधित्व की सभी व्यवस्थाओं में खबरें तैयार करने वाले निर्माताओं के हित स्पष्ट तौर पर झलकते हैं। मैं समझता हूं कि इस बारे में हमारा दिमाग बहुत साफ होना चाहिए। निष्पक्ष दृष्टिकोण जैसी कोई चीज नहीं होती।
सभी विचार किसी न किसी नजरिये को दर्शाते हैं। इसलिए मिल्स कहते हैं ‘राजनीति ही वह क्षेत्र है, जिसमें बौद्धिक एकजुटता तथा प्रयास को केंद्रित होना ही चाहिए।’ इतना ही नहीं, यदि विचारक राजनीतिक संघर्ष में स्वयं को सत्य के मूल्य से नहीं जोड़ पाता है तो वह किसी भी जीते जागते अनुभव से जिम्मेदारी के साथ नहीं निपट सकता है। समकालीन मीडिया के विरोधभासपूर्ण, असंगत व बाहरी लोक अनुभवों से सच्चाई को अलग करने की योग्यता हममें होनी ही चाहिए। सिर्फ मीडिया ही हमारी जिंदगी के पूरे दायरे पर भी यही बात लागू होती है।
दुनिया जिसमें हम जीते हैं, प्राप्त विचारों से भरी हुई होती है। लोग कहते हैं – ‘इसी तरह के हम कार्य करते हैं, यही यथास्थिति है, आपको इसी राह पर चलना चाहिए।’ और मेरे लिए बुद्धिजीवी की भूमिका यह है कि वह यथास्थिति पर प्रश्न उठाये, सत्ता को चुनौती दे, खबरों की, सरकारी रिपोर्टों की तह तक पहुंचने की कोशिश करे, विद्वता और ज्ञान के रूप में जो प्रदान किया जा रहा है, उसकी सतह के नीचे तक पहुंचने का प्रयास। अतः आप देखेंगे कि यह प्रक्रिया तब शुरू होती है, जब हम छात्र होते हैं तथा जब हम समाज के नागरिक बन जाते हैं, तब भी यह चलती रहती है। ऐसा करना सच्चाई जानने का एक तरीका है। अब देखें कि बुद्धिजीवियों की खास समस्याएं क्या हैं? सबसे पहले तो हमें तय करना होगा कि क्या सभी बुद्धिजीवी होते हैं या फिर चंद लोग।
इटली के महान मार्क्सवादी ग्राम्शी ने, जो बुद्धिजीवियों के विषय में लिखने वाले 20वीं शताब्दी के पहले विचारक थे, कहा था कि मानव बुद्धिजीवी होता है क्योंकि उसके पास बुद्धि होती है। परंतु समाज में हर व्यक्ति की भूमिका बुद्धिजीवी की नहीं होती। एक दूसरे महत्वपूर्ण यूरोपीय विचारक जूलियन बेंडा ने, जो काफी दक्षिणपंथी विचारक थे, 1920 के दशक के अंत में बिट्रेयल ऑफ इंटलेक्चुअल नामक एक पुस्तक लिखी जिसमें कहा कि बुद्धिजीवी गिने चुने ही होते हैं क्योंकि वास्तव में बुद्धिजीवी वह होता है जो एक तरह का ‘आउटसाइडर’ होता है, जो यथास्थिति को चुनौती देता है और इस तरह के सवाल उठाता है जिस तरह के सवाल पहले कभी नहीं उठाये गये।
इसलिए एक खास मायने में बुद्धिजीवी ओल्ड टैस्टामेंट के पैगंबर जैसा पैगंबर होता है, जो ऐसे सवाल उठाता है, जिसे कोई उठाने को तैयार न हो तथा जिसका जवाब देने को भी स्वाभाविक रूप से कोई इच्छुक न हो। इसलिए मैं मानता हूं कि बुद्धिजीवी होने का मतलब व्यक्ति से उतना अधिक नहीं जितना कि मनोवृत्ति, जीवन की दशा, प्रश्न के स्वरूप, ऊर्जा के रूप से है जो, जैसा कि मैंने पहले ही कहा है, सच्चाई बताने तथा उन बातों को समझने की कोशिश से है जिन्हें उनके समय के लोग समझने की कोशिश नहीं करते हैं या जो समझाया जाता है वही सच मान लेते हैं।
शनिवार, 16 अक्टूबर 2010
राजू जी से साभार क्योंकि यह लेख सबको पढ़नी चाहिए
प्रेमचंद : साम्प्रदायिकता और राष्ट्रवाद
कल इस लेख की दो पंक्ति मैंने फेसबुक पर दी थी। काफी प्रतिक्रिया हुई। मित्रों ने उद्धरणों की मांग की। उनकी यह मांग स्वाभाविक है। यह लेख इस रूप में कई साल पहले लिखा गया था। इसलिए आज इसको जांचने-परखने की भी जरूरत है। इस ख्याल से भी मित्रों के बीच प्रस्तुत करना जरूरी है।
भारत एक राष्ट्र नहीं था। राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया की शुरुआत 1857 की क्रांति के बाद होती है और राष्ट्रवाद की प्रथम अभिव्यक्ति सन् 1885 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना में होती है। इससे पहले हिन्दुस्तान कई छोटे-छोटे प्रदेशों में बंटा हुआ था और सारे लोग आपस में, संघर्ष में उलझे हुए थे, फलतः हमारा देश गुलाम हुआ। लोग इस मनोदशा के शिकार थे कि कोई राजा हो हमें क्या फर्क पड़ता है। पराधीनता की इस बेड़ी को मजबूत और अकाट्य बनाये रखने के लिए ब्रिटिश हुकूमत ने भारतीयों को धर्म, जाति एवं संप्रदाय के नाम पर बांटना शुरू किया। ध्यान रहे कि भारत में अंग्रेजी राज की स्थापना में दलितों ने मदद पहुंचाई थी। धर्म एवं जाति के नाम पर लोगों को आपस में बांटकर शासन करने की नीति साम्राज्यवादियों की बड़ी पुरानी नीति थी। सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि आयरलैंड की जनता को भी उसने धर्म के नाम पर तोड़ा था। (रामविलास शर्मा, मार्क्स और पिछड़े हुए समाज , पृष्ठ 67)। अंग्रेज शासकों ने उसी पुराने फार्मूले का भारत में भी अमल में लाने की कोशिश की और नारा दिया, ‘फूट डालो और शासन करो।’ इसके उलट अंग्रेजों ने बहुत सारे ऐसे काम किए जिनसे अप्रत्यक्ष रूप से राष्ट्र-निर्माण की प्रक्रिया की सुगबुगाहट तेज हुई।
हिन्दुस्तान में जैसे-जैसे राष्ट्रवाद का विकास हुआ, हिन्दू-मुस्लिम विद्वेष भी उसी हिसाब से बढ़ा। अब शायद यह अतीत की बात हो गई थी कि 1857 की क्रांति में हिन्दू एवं मुसलमानों ने अंग्रेजों के खिलाफ कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष किया था। डा. अखिलेश कुमार ने अपनी पुस्तक ‘कम्युनल रॉयट्स इन मॉडर्न इंडिया ' में सांप्रदायिक दंगों का संबंध कांग्रेस की स्थापना से ठीक ही जोड़ा है। आप कह ले सकते हैं कि भारत में राष्ट्रवाद एवं सांप्रदायिकता के उद्भव एवं विकास की लगभग एक ही प्रक्रिया रही है। ‘भारतीय राष्ट्रवाद’ जिस नवजागरण का फल है, उस नवजागरण में हिन्दू नवजागरण और मुस्लिम नवजागरण साथ-साथ घटित हुए। (नामवर सिंह, बहुमत -3, पृष्ठ 5)। राष्ट्रवाद और हिन्दू जातीयता और मुस्लिम कौमियत, ये साथ-साथ पैदा हुईं। भारत में राष्ट्रवाद एवं सांप्रदायिकता दोनों जुड़वा भाई हैं। लगता है, सांप्रदायिकता राष्ट्रवाद की ही एक अपरिपक्व धारा है और राष्ट्रवाद सांप्रदायिकता का ही एक ब्यूटीफायड (संस्कृत, संस्कारित) नाम है। (राजू रंजन प्रसाद, बहुमत -3, पृष्ठ 40)।
यह एक सामान्य ऐतिहासिक तथ्य है कि भारतीय राष्ट्रवाद, अंग्रेजी साम्राज्यवाद की प्रतिक्रिया में पैदा हुआ है। इसलिए उसमें इसके अंतर्विरोध भी शामिल है। यह भारतीय राष्ट्रवाद का अपना अंतर्विरोध है, उसके निर्माण की प्रक्रिया का दोष। इस अंतर्विरोध का असर उस जमाने की राजनीति एवं संस्कृति जैसे तमाम मोर्चों पर देखने में आता है। इसलिए हिन्दी साहित्य के लेखकों का इससे बेअसर रहना बिल्कुल ही मुमकिन तथा वैज्ञानिक नहीं था। इसके असर से हम प्रेमचंद जैसे रचनाकार को भी मुक्त नहीं पाते हैं। वे कभी तो बहुत आगे निकले हुए प्रतीत होते हैं और कभी पीछे छूट गए से लगते हैं। तत्कालीन राजनीति में भी ऐसी दिलचस्प घटनाएं घटी हैं। रजनी पाम दत्त ने ठीक ही लिखा है, ‘कभी-कभी हम बहुत आगे निकल जाते थे, लगता था मानो आंदोलन ने अपनी मंजिल को पा लिया है लेकिन दूसरे ही क्षण उसका अंत समझौते की हार में होता था।’
प्रेमचंद इस दौर के अकेले सबसे बड़े साहित्यकार हैं जिन्होंने राष्ट्रीय एकता की समस्या को सबसे ज्यादा गंभीरता के साथ हल करने की कोशिश की है। इस क्रम में उन्हें सांप्रदायिकता, जाति-व्यवस्था और अंधविश्वास जैसी भयंकर बाधाओं से जमकर लोहा लेना पड़ा है। जब हम यह कह रहे होते हैं कि प्रेमचंद ने अपने साहित्य के माध्यम से राष्ट्रीय आंदोलन का इतिहास लिखा है तो इसका अर्थ यह कदापि नहीं होता कि कांगेसी नेतृत्व में चले आंदोलन का उन्होंने तर्जुमा मात्र किया है। उनको पढ़ते हुए हम भारत के किसान आंदोलन, मजदूरों में अपने देश के प्रति सजगता एवं धार्मिक-सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ संगठित हो रही ताकतों से भी परिचित होते हैं। निश्चित रूप से ऐसी ताकतें कांग्रेस के बाहर की भी होती हैं।
‘प्रेमचंद : सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद ’ विषय को चुनते हुए हम काफी सतर्क हैं। हमारा प्रयास केवल इतना भर है कि प्रेमचंद पर अब तक जो लिखा गया है, विशेषकर जड़, यांत्रिक एवं कट्टर मार्क्सवादी आलोचना, उसके जाल से निकलकर वस्तुस्थिति की जांच हो, क्योंकि समय आ गया है कि हम अपनी गलतियों पर विमर्श करें और उससे आवश्यक सबक लें।
प्रेमचंद ने जो कुछ भी कहा, प्रगतिशीलता के आग्रह में लोगों ने उसे बेहिचक सही और तर्कसंगत मान लिया। प्रस्तुत आलेख में प्रेमचंद के इन्हीं वैचारिक अंतर्विरोधों की चर्चा है। ‘प्रगतिशील’ आलोचकों को अब तो मान लेना चाहिए कि प्रेमचंद के यहां सब कुछ स्पष्ट और तर्कसंगत नहीं है।
हिन्दू होने का अहसास और फिर हिन्दू धर्म पर गौरव, प्रेमचंद के संस्कार में कहीं किसी कोने में सदा के लिए बैठ गया लगता है। 1909 प्रेमचंद के लेखन का आरंभिक दौर है। ‘सोजे-वतन ’ अभी-अभी प्रकाशित हुआ था। इससे पहले उनके विचारों का एक संग्रह ‘कलम, तलवार और न्याय ’ शीर्षक से प्रकाशित हो चुका था। इन दोनों ही पुस्तकों में राजपूतों की गौरव-गाथाओं का अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन है। हिन्दू होने का उनका यह ‘अहसास’ लगभग अंत तक कायम रहा। बाद के दिनों में भी ‘हिन्दू’ शब्द के साथ उनका वैसा ही रागात्मक संबंध कायम रहा। सन् 1925 के जनवरी के ‘माधुरी ’ में प्रेमचंद लिखते हैं, ‘हिन्दू जाति यदि अपने पुरुखाओं को किसी धर्म संग्राम में आत्मोत्सर्ग करते हुए देखकर प्रसन्न न हो तो सिवाय इसके और क्या कहा जा सकता है कि इसमें वीर पूजा की भावना भी नहीं रह जो किसी जाति के अधःपतन का अंतिम लक्षण है। ’ आगे वे और लिखते हैं, ‘जब तक हम अर्जुन, प्रताप, शिवाजी आदि वीरों की पूजा और कीर्ति पर गर्व करते हैं तब तक हमारे पुनरुद्धार की कुछ आशा हो सकती है। ’ कहना होगा कि प्रेमचंद के देश के पुनरुद्धार में हिन्दू जाति का पुनरुद्धार आवश्यक रूप से जुड़ा हुआ है।
महाराणा प्रताप, शिवाजी आदि इतिहास पुरुषों को राष्ट्रीय नायक के रूप में चित्रित करने का मतलब होगा मुसलमानों की संपूर्ण सत्ता को विदेशी करार देना। ऐसी स्थिति में प्रेमचंद साम्राज्यवादी इतिहासकारों के काल-विभाजन यथा हिन्दू काल, मुस्लिम काल एवं आधुनिक काल को ही पुष्ट करते नजर आते हैं। यह भारतीय इतिहास की अत्यंत ही नस्लवादी एवं सांप्रदायिक व्याख्या है।
भारत के संपूर्ण इतिहास को अगर देखने की कोशिश करें तो पता चलेगा कि यहां दोनों ही तरह की परंपराएं हैं, दोनों ही तरह के आदर्श हैं। एक तरफ अगर औरंगजेब, राणा प्रताप एवं ‘वीर’ शिवाजी हैं तो दूसरी तरफ अकबर एवं अशोक की महान और उदार परंपरा भी है। भारत के इतिहास में अकबर साझी संस्कृति का प्रतीक है, फिर भी अगर प्रेमचंद , शिवाजी की ही कीर्ति पर गर्व करते हैं तो बात सचमुच मतलब से खाली नहीं है। आज सांप्रदायिकता को हवा देनेवाली ताकतें इन्हें ही अपना आदर्श मानती हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान बाल गंगाधर तिलक ने भी इन्हीं वीर नायकों को अपना आदर्श बनाया था जिसके फलस्वरूप सांप्रदायिक राजनीति की जड़ें मजबूत हुईं और राष्ट्रीय आंदोलन कमजोर हुआ। कहना न होगा कि आर. एस. एस. तिलक को अपना वैचारिक गुरु मानता है। इसलिए राष्ट्रीय आंदोलन का जो अंतर्विरोध रहा या फिर इसकी जिन मोर्चों पर हार हुई, उसका कारण बहुत हद तक उस विचारधारा को माना जा सकता है जिसे तिलक स्वीकार किये बैठे थे, और जिसे प्रेमचंद भी जोश में याद कर लेते हैं।
प्रेमचंद ने सांप्रदायिकता के खिलाफ स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहासकारों में सबसे ज्यादा और बेहद मजबूती के साथ लिखा है। लेकिन इस समस्या के बारे में ऐसा लगता है, उनकी समझ बहुत स्पष्ट और वैज्ञानिक नहीं थी। प्रेमचंद मानते हैं कि राष्ट्रीयता वर्तमान का कोढ़ है, उसी तरह जैसे मध्यकालीन युग का कोढ़ सांप्रदायिकता थी। मार्क्सवादी आलोचक खगेन्द्र ठाकुर बहुत हाल तक मानते रहे हैं कि सांप्रदायिकता, आधुनिक युग की नहीं मध्यकाल की चीज है। (आलोचना -59)। दरअसल, राष्ट्रीयता एवं सांप्रदायिकता दोनों ही आधुनिक भारत की उपज हैं। इस तरह की गलती का मूल कारण है कि लोग सांप्रदायिकता एवं सांप्रदायिक तनाव दोनों को एक ही चीज मान बैठते हैं। सांप्रदायिकता औपनिवेशिक भारत की देन है जबकि सांप्रदायिक तनाव अथवा संघर्ष मध्य युग में भी था। (डा. अखिलेश कुमार की कृति 'कम्युनल रॉयट्स इन मॉडर्न इंडिया ’ इस विषय की विस्तृत जानकारी के लिए देखें)।
प्रेमचंद यह भी लिखते हैं कि ‘दोनों संप्रदायों में कशमकश और सन्देह और घृणा की जड़ें इतिहास में हैं।’ लेकिन चूंकि इतिहास का समीकरण कुछ इस तरह का है कि वे मान बैठते हैं कि ‘मुसलमान विजेता थे और हिन्दू विजित।’ (प्रेमचंद के विचार , भाग-1, पृष्ठ 353)। तब वे यह भी सोचने को बाध्य होते हैं कि ‘मुसलमानों की तरफ से हिन्दुओं पर अक्सर ज्यादतियां हुईं।’ इसलिए हिन्दुओं की दिन-प्रतिदिन घटती हुई आबादी उनकी चिंता का कारण बनी। (वही)
सामान्यतः, सांप्रदायिकता के होने में इस ‘मिथ्या चेतना’ का प्रमुख हाथ है कि समान धर्म को माननेवाले लोगों के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक हित समान होते हैं, तथा एक धर्म विशेष के माननेवालों के हित दूसरे धर्म के अनुयायियों के हितों के सर्वथा विरोधी होते हैं। संप्रदायवादी इस विचारधारा को काफी तूल देते पाये जाते हैं कि हमारा देश छोटी-छोटी धार्मिक इकाइयों में विभाजित है अर्थात् वे विभिन्न धार्मिक समुदायों के स्वतंत्र अस्तित्व को काफी जोर देकर प्रचारित करना चाहते हैं। इस संप्रदायवादी चिंतनधारा के खिलाफ प्रेमचंद के लेखन में जबर्दस्त प्रतिवाद का अभाव खटकता है। एक जगह तो प्रेमचंद हिन्दू-मुसलमान के पृथक अस्तित्व को न केवल स्वीकार करते हैं बल्कि इस बात की घोषणा भी करते हैं कि यह अस्तित्व शाश्वत है। प्रेमचंद बिल्कुल स्पष्ट शब्दों में लिखते हैं, ‘हिन्दू और मुसलमान न कभी दूध और चीनी थे, न होंगे और न होने चाहिए। दोनों की अलग-अलग सूरतें रहनी चाहिए और बनी रहेगी। ’ (वही, पृष्ठ 355)। आधुनिक भारत की राजनीति में इसी ख्याल ने संप्रदायवाद के उद्भव को आधार प्रदान किया है। संप्रदायवादियों का मूलमंत्र है कि हिन्दू एवं मुसलमान दो भिन्न धार्मिक इकाइयां हैं। इसे स्वीकार करने में प्रेमचंद को कोई एतराज नहीं है।
दूसरी तरफ दिसंबर 1933 के ‘जमाना ’ में नेहरु को उद्धृत करते हुए प्रेमचंद ने लिखा है कि ‘आज भारत में मुस्लिम और हिन्दू जनता में कोई वंशगत या सांस्कृतिक भेद नाम को भी नहीं है। अवध या बुंदेलखंड के किसी मुस्लिम या हिन्दू किसान में ऐसा कोई अंतर न मिलेगा, जो एक को दूसरे से अलग कर दे। ’ प्रेमचंद को पढ़ते हुए हमें कई दफा हिन्दुओं एवं मुसलमानों के वंशगत या संस्कारगत भेद का अहसास होता है। हिन्दू उनके लिए उदारता एवं सादगी का प्रतीक है जबकि मुसलमानों के लिए ठीक यही भाव नहीं है। गांव के बड़े-बूढ़ों के बीच अब भी ‘हिन्दू बढ़े नेम से मुसलमान बढ़े कुनेम से ’ वाली बात प्रचलित है। हिन्दुओं में मांस, मुर्गी, अंडा आदि खाना आदर्श रूप में वर्जित है। मांसाहार करना ही मुसलमान होने के लिए पर्याप्त है। प्रेमचंद की रचनाओं के माध्यम से भी यह बात उभरकर सामने आती है।
14 जुलाई 1936 को प्रेमचंद की बच्चों के लिए एक कहानी आई थी-‘कुत्ते की कहानी ’ । इसमें एक पात्र डफाली है जिसका कुत्ता जकिया है। डफाली चूंकि मांस खाकर अपना गुजारा करता था, इसलिए जकिया को भी लगभग रोज ही मांस मयस्सर हो जाता था। इस भाव को स्पष्ट करने में प्रेमचंद का ‘टिपिकल’ हिन्दू संस्कार अपनी छाप छोड़ जाता है। वे लिखते हैं, ‘मगर भाई जकिया पक्का मुसलमान था रोज मांस खाता। ’ वहीं प्रेमचंद पंडित जी के कुत्ते के लिए लिखते हैं, ‘चूहों को खिला-खिलाकर जान से मार डालता था, पर खाता न था। ’ इस तरह प्रेमचंद के यहां हिन्दू-मुस्लिम के वंशगत या संस्कारगत भेद का हमें तीखा अहसास होता है।
जीवनपर्यंत प्रेमचंद गहरे वैचारिक अंतर्विरोध के बीच जीते हैं। वे सांप्रदायिकता की समस्या का हल ढूंढ़ नहीं पाते। हालांकि धर्म के फरेब को वे अच्छी तरह जानते थे। हिन्दू-मुसलमानों की राजनीतिक लीला भी उनसे छिपी न थी। इसलिए सांप्रदायिकता के कारणों में वे धर्म की बजाय जनता के बीच राजनीतिकरण के अभाव को प्रमुख मानते हैं। उन्होंने लिखा था, ‘हमारा दृढ़ संकल्प है कि ज्यों-ज्यों हमारा राजनैतिक विकास होगा, सांप्रदायिकता मिटती जायगी और आर्थिक समस्याएं उसका स्थान लेती जाएंगी।’ एक जगह वे बहुत साफ शब्दों में कहते हैं, ‘कल की लड़ाई आर्थिक होगी।’
साम्प्रदायिकता संबंधी विचारों के मामले में हम प्रेमचंद के यहां चिंतन की एक दूसरी धारा भी देखते हैं, जहां अभिजातवर्गीय दृष्टिकोण खुलकर सामने आता है। गांधीजी का मानना था कि अगर हमारे नेता आपस के द्वेष को भुला दें तो सांप्रदायिकता जैसी समस्याओं का अंत संभव हो सकता है। गांधीजी सांप्रदायिकता के मूल कारणों को खोज पाने में असमर्थ हैं, इसलिए उनके समाधान भी बिल्कुल सतही और भ्रमोत्पादक हैं। प्रेमचंद को भी इन नेताओं पर कुछ जरूरत से ज्यादा ही भरोसा है। वे मानते हैं कि सांप्रदायिकता को समाप्त करने के लिए ‘जरूरत सिर्फ इस बात की है कि उनके नेताओं में परस्पर सहिष्णुता और उत्सर्ग की भावना हो।’ ऐसा ख्याल इस मान्यता को प्रमाणित कर देता है कि सचमुच हमारा समाज हिन्दू, मुसलमान एवं सिक्ख जैसी इकाइयों में बंटा है। तब हम जाने-अनजाने संप्रदायवादियों के ही सिद्धांत कि एक समुदाय के सारे लोगों के हित समान होते हैं, को समर्थन दे रहे होते हैं। इस तरह राष्ट्रवादियों और संप्रदायवादियों के बीच का भेद मिटता नजर आता है। प्रेमचंद एवं गांधीजी के विचारों के विपरीत, नेहरु का मानना था कि सांप्रदायिकता को समाप्त करने के लिए जनता के बीच एकता कायम करनी होगी।
हिन्दी में सृजनात्मक साहित्य के माध्यम से सांप्रदायिकता फैलानेवाले लेखकों की भी एक परंपरा रही है। भारतेंदु और प्रताप नारायण मिश्र के जमाने से लेकर प्रेमचंद के जमाने तक इस परंपरा को फलते-फूलते देखा जा सकता है। प्रेमचंद ने इस तरह के लेखन से लोगों को हमेशा सतर्क एवं सावधान रखने की कोशिश की है। धर्मनिरपेक्ष मूल्यों की स्थापना के लिए उन्होंने संघर्ष का रास्ता अपनाया। यहां ‘इस्लाम का विष-वृक्ष ’ की चर्चा करना अप्रासंगिक न होगा। इसके लेखक थे श्री चतुरसेन शास्त्री। इस पुस्तक में इस्लाम का इतिहास है। साथ ही इसमें सांप्रदायिकता को भड़कानेवाली बातें लिखी हुई थीं। प्रेमचंद भला इसे कब बर्दाश्त करनेवाले थे। उन्होंने शास्त्री जी को लगभग डांटते हुए लिखा, ‘हम उनसे प्रार्थना करते हैं कि ऐसी जटिल और द्रोहभरी रचनाएं लिखकर अपनी प्रतिभा को और हिन्दी को कलंकित न करें और राष्ट्र में जो द्रोह और द्वेष पहले से ही फैला हुआ है, उस बारूद में आग न लगावें।’ हिन्दी एवं उर्दू का प्रेमचंद के लेखन में कोई विरोध नहीं है। दोनों ही भाषाओं में सांप्रदायिकता का दुष्प्रचार करनेवालों को वे सबक सिखाते हैं। नियाज फतेहपुरी एक ऐसे ही पत्रकार थे जिनमें देशभक्ति के तमाम दावों के बावजूद हद दर्जे की सांप्रदायिक भावनाओं और विचारों को प्रकट करने का साहस भी था, जिसके लिए प्रेमचंद ने इनको काफी भला-बुरा लिखा था। इस तरह प्रेमचंद के लेखन की जो मुख्यधारा है, वह धर्मनिरपेक्ष मूल्यों एवं राष्ट्रवादी चेतना को प्रोत्साहित करती है।
यह और बात है कि धर्मनिरपेक्षता एवं राष्ट्रवाद की बात करते-करते अचानक प्रेमचंद का सोया हिन्दू मन जाग उठता है और यहां तक कि ‘स्वराज’, जिसमें हिन्दू-मुसलमान जैसी चीजों का न होना था, वहां भी हिन्दू रंग एक बार चढ़ जाता है। शासन में मुसलमानों की भागीदारी के नाम पर एक ‘टिपिकल हिन्दू’ के रूप में प्रेमचंद कहते हैं, ‘अव्वल तो अपने दिल से यह ख्याल निकाल देना चाहिए कि हमारे देश-भाई अब भी हम पर हुकूमत का इरादा रखते हैं क्योंकि हिन्दू संख्या में, धन-दौलत में, शक्ति में मुसलमानों में किसी तरह से कम नहीं हैं।’ (प्रेमचंद के विचार , भाग-1, पृष्ठ 414)।
प्रेमचंद के ये अंतर्विरोध भारतीय राष्ट्रवाद के अंतर्विरोध हैं। राष्ट्रवाद एक आधुनिक विचारधारा है। भारत में इसका उद्भव एवं विकास स्वाभाविक रूप से साम्राज्यवाद विरोधी विचारधारा के रूप में हुआ। अंग्रेज शासकों एवं उपनिवेशवादी इतिहासकारों का ख्याल था कि भारत का अपना कोई इतिहास नहीं है। अंग्रेजों के इस दुष्प्रचार का शिकार होकर कभी मार्क्स ने भी स्वीकार किया था कि भारत का कोई इतिहास नहीं है; इतिहास के नाम पर विदेशी आक्रमण की कुछ घटनाएं हैं। फलतः भारत में राष्ट्रीय चेतना का निर्माण औपनिवेशिक धारणाओं और आधारवाक्यों के अस्वीकार एवं आत्मसम्मान के लिए संघर्ष के बीच हुआ। इसलिए यह भी उतना ही स्पष्ट है कि भारतीय राष्ट्रवाद के विकास के प्रथम चरण में औपनिवेशिक मान्यताओं का जबर्दस्त खंडन होना था। यहां तक कि लोगों ने प्राचीन भारत में जनतंत्रात्मक शासन प्रणाली के होने की बात पर जोर देना शुरू कर दिया। कभी-कभी तो राष्ट्रवाद इस कदर हावी हो गया कि वे अपने अतीत को वर्तमान से भी अधिक सुंदर देखने लगे। इसके साथ ही पश्चिम की हर अच्छी-बुरी चीज का प्रत्याख्यान हुआ। निराला जब कहते हैं, ‘योग्य जन जीता है। पश्चिम की उक्ति नहीं। गीता है, गीता है। स्मरण करो बार-बार ’, तो यही भाव है। डार्विन के विकासवाद को खुली चुनौती है यह। भारत की राष्ट्रीय चेतना इस चिंतनधारा से प्रभावित रही है। प्रेमचंद भी इस चेतना से अप्रभावित नहीं थे, खासकर अपने आरंभिक दौर में इस रंग में रंगे हुए थे।
राष्ट्रवाद के विकास के प्रथम चरण में शिवाजी, महाराणा प्रताप आदि क्षेत्रीय नायकों को राष्ट्रवादियों ने राष्ट्रनायक के रूप में चित्रित किया। आश्चर्य नहीं कि ‘आत्मचेता क्रांतिकारी’ (सेल्फकंशस रिवोल्यूश्नरी) नेहरु के लिए भी गुप्त साम्राज्य का उत्कर्ष राष्ट्रीयता का अभ्युदय था। सिर्फ राष्ट्रवादी चिंतकों की ही ऐसी स्थिति न थी बल्कि बहुत हद तक मार्क्सवादी विचारधारा के लोग भी चीजों को ठीक इसी रूप में देख रहे थे। ‘पहल ’ के इतिहास अंक के लेख ‘मार्क्सवादी इतिहास-विश्लेषण की समस्याएं ’ की एक पाद-टिप्पणी में इरफान हबीब ने लिखा है, ‘पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस शिवाजी को एक ऐसा ही राष्ट्रीय नायक मानता था और उनके सम्मान में उनके राज्याभिषेक के अवसर पर संस्कृत में लिखी गई एक लंबी कविता का संस्करण भी उसने निकाला था, हालांकि उसमें एक दरबारी कवि की अतिशयोक्ति के अलावा ऐतिहासिक मूल्य की दृष्टि से कुछ भी नहीं है। ’ उन्हीं के उद्धरण का सहारा लेकर कहूं कि ‘‘सी. पी. आई के मुखपत्र ‘न्यू एज ’ ने एक बार शिवाजी को, ‘वे जो कुछ भी थे ’, अर्थात् दमनकारी कहने के लिए, मोरारजी के बारे में भला-बुरा भी लिखा था।’
प्रेमचंद का अंतर्विरोध बहुत हद तक किसी तर्कसंगत विचारधारा के अभाव की वजह से है। आपने जो दृष्टि प्राप्त की थी, वह विचारधारा की नहीं ‘ऑब्जर्वेशन’ की दृष्टि थी। लेकिन उसमें तोलस्तोय की गहराई न थी। भारतीय समाज की जटिल संरचना, खासकर सांप्रदायिकता जैसी विचारधारात्मक अवधारणाओं को स्पष्टतः समझने में इनकी दृष्टि फंस जाती है और अपनी दूरदर्शिता खो बैठती है। बहुत संभव है कि अपने अंतिम दिनों तक प्रेमचंद ने मार्क्सवाद का विधिवत अध्ययन न किया हो। कहना होगा कि उनके लेखों में मार्क्सवादी शब्दावली का, जिसका आरंभिक मार्क्सवादी लेखन में बाहुल्य है, अभाव प्रतीत होता है। प्रेमचंद के अंतर्विरोध का यह भी एक संभव कारण हो सकता है। नेहरु इसलिए भी चीजों को साफ देख पा रहे थे-खासकर विचारधारात्मक प्रश्नों को।
इस तरह के अंतर्विरोध की परंपरा साहित्य के साथ-साथ इतिहास एवं राजनीति के क्षेत्रों में भी रही है। यह बात अलग है कि सांस्कृतिक मंच से भारत के पुरातन समाज और सांस्कृतिक पुनरुत्थान के इन रूपों ने राष्ट्रीय चेतना को तीव्र तो किया, पर साथ ही आलोचनात्मक सामाजिक चेतना को कुंठित भी किया। प्रेमचंद को हम इस पृष्ठभूमि से अलग काटकर नहीं देख सकते। किसी भी सामाजिक समस्या या सवाल की सही पहचान के लिए यह आवश्यक है कि उसे निश्चित ऐतिहासिक-सामाजिक सीमाओं के भीतर परखा जाये, जिसमें ये सवाल पैदा होते हैं। औपनिवेशिक काल की सीमाओं के भीतर उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन में प्रेमचंद की भूमिका महत्वपूर्ण है। और यह भी उतना ही सत्य है कि अपनी औपनिवेशिक सीमाओं के भीतर, हमारा राष्ट्रवाद एक धर्मनिरपेक्ष मूल्य था।
प्रकाशनः सहमत मुक्तनाद , अंक 35, जून 2006।
शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010
उम्मीद की लत
राजू रंजन प्रसाद se saabhar
एक सामान्य व्यक्ति अतीत और इतिहास को अलगाकर नहीं देखता; अक्सर ही दोनों का प्रयोग समानार्थी की तरह कर डालता है। लेकिन इतिहास का एक सजग पाठक ऐसी गलती से भरसक बचेगा। अतीत एक समग्र अस्तित्व का नाम है जबकि इतिहास हमेशा एक टुकड़ा से ज्यादा कुछ नहीं होता। अतीत एक संपूर्णता का नाम है जबकि इतिहास महज एक चुना हुआ अंश जो इतिहासकार की सदिच्छा, आग्रह और परिवेश की झलक देता है। अतीत की घटनाएं मनुष्य के नियंत्रण से बाहर हैं और इतिहास सदैव हमारी मुट्ठी में, क्योंकि वह इतिहासकार की अपनी रचना है; उसका अपना विवेक बोलता है उसमें। इतिहास हमेशा इतिहासकार की रुचि का दास है और इतिहासकार ठीक उसी तरह से अतीत का। अतीत की घटनाओं में इतिहासकार कोई तब्दीली नहीं ला सकता, किंतु इतिहास की व्याख्या पर उसका पूरा अधिकार बनता है। प्रत्येक इतिहास के पीछे से इतिहासकार की आवाज आती है जिसे स्पष्टता के साथ सुना जा सकता है। ई. एच. कार ने एक बड़ी अच्छी बात कही थी कि इतिहास की किताब पढ़ते हुए उसके पीछे से आनेवाली ध्वनि को सुनो। अगर कुछ सुनाई न पड़े तो समझो या तो तुम बहरे हो या तुम्हारा इतिहासकार एकदम बोदा है। इन अर्थों में अतीत एक टेक्स्ट है और इतिहास उसका पाठ, उसकी व्याख्या। जैसे ही इतिहासकार बदलेगा, टेक्स्ट बदलेगा और बदलेगी उसकी व्याख्या। इसलिए अतीत भी कोई शाश्वत सत्य जैसी चीज न है। आपने भी गौर किया होगा जब एक इतिहासकार दूसरे इतिहासकार पर ऐतिहासिक तथ्यों की अनदेखी करने का आरोप लगाता है! क्या है तथ्यों की अनदेखी का मतलब ? शायद अतीत का निर्मित हो रहा एक नया पाठ जो पारंपरिक पाठ से भिन्नता लिए होता है।
जिस तरह साहित्य सामाजिक यथार्थ का पुनर्सृजन है किन्हीं अर्थों में अतीत और इतिहास का भी वही संबंध है। अतीत इतिहासकार का कच्चा माल है, उसको एक निश्चित शक्ल प्रदान करना इतिहासकार का पुनीत दायित्व। अतीत की घटनाएं क्रमबद्ध हैं, उसमें कहीं क्रमभंग आपको न मिलेगा लेकिन यह मामला बिल्कुल इतिहासकार की रुचि और प्रशिक्षण का है कि किन घटनाओं का वह चुनाव करता है, कौन-सी घटनाएं उसे इतिहास-लेखन की तरफ प्रवृत्त करती हैं। यह भी उसकी इच्छा पर ही निर्भर है कि अतीत के किस विशेष कालखंड को वह अपने अध्ययन का विषय बनाता है। इसमें इतिहासकार की सामाजिक अवस्थिति और मनोदशा की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता।
इतिहास लगभग खंडों में प्रस्तुत किया जाता है; कुछ चीजें अक्सर इस बीच से गायब मिलती हैं। इसलिए इतिहास को एक बड़ी आरी कहा गया है जिसके कई दांत गायब हैं। एक इतिहासकार की यह व्यावहारिक समस्या भी हो सकती है कि समग्र अतीत को वह एक ही साथ प्रस्तुत नहीं कर सकता। यह एक ऐसी समस्या है जिसके लाभ भी हमें खूब मिलते हैं। जिस प्रकार मनुष्य के जीवन के कुछ पहलू अत्यंत गोपनीय हैं और कुछ पर हम पर्दा डाले रहते हैं, ठीक उसी तरह अतीत में कुछ वैसी घटनाएं घट चुकी रहती हैं जो हमारी पकड़ में नहीं होतीं और जिनकी चर्चा अक्सर बहुत प्रीतिकर और उपयोगी भी नहीं होती। यही वह बिंदु है जहां इतिहासकार का इतिहास-बोध महत्वपूर्ण हो उठता है। अतीत के किस हिस्से पर रोशनी डालनी है, इसकी समझ एक इतिहासकार के लिए आवश्यक शर्त की तरह है। अतीत का अपना एक मोह होता है जिसमें सम्मोहन की अजीब शक्ति है! इतिहासकार को अतीत के मोह से लड़ते हुए अपना इतिहास-बोध जाग्रत करना होता है। हालांकि मुक्तिबोध ने अपनी बात एक अन्य संदर्भ में रखी है लेकिन मुझे लिखते बल मिल रहा है कि भावना बच्चा है, अगर उसे आदमी नहीं बना सकते तो उसकी हत्या कर दो। एक इतिहासकार अतीत की घटनाओं से जितना ही टकराएगा, उसकी इतिहास दृष्टि उतनी ही पैनी होगी। बहुत सही समय है एक अंग्रेजी कथन याद करने का, ‘चाइल्ड इज दि फादर ऑफ मैन।’ मनुष्य बनने की प्रक्रिया में एक व्यक्ति को कितना लड़ना होता है अपने बचपने से! जो जितना लड़ पाता है उतना ही बड़ा मनुष्य बन पाता है।
इतिहास अतीत का अध्ययन करता है और हम इतिहास का अध्ययन करते हैं अपने वर्तमान को समझने एवं भविष्य की दिशा तय करने के लिए। अतीत का ज्ञान कोई जरूरी नहीं कि वर्तमान को समझने की कुंजी दे ही। कई बार अतीत हमारे लिए मुश्किलें खड़ी करता है। अतीत एक विशाल सागर की तरह है जिसे पार पाना आसान नहीं होता। इतिहासकार लेटन स्ट्रैची ने, अगर ई. एच. कार द्वारा उद्धृत शब्दों का सहारा लेकर कहूं तो ‘खास शरारती अंदाज’ में कहा हैः ‘इतिहासकार की पहली आवश्यकता है अज्ञान, अज्ञान जो उसके लिए चीजों को स्पष्ट और सरल बनाता है। जो चुनाव करता है और छोड़ता जाता है।’ शायद इसीलिए मध्य युग के बारे में हम पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है कि मानों वहां सब कुछ धर्म से अनुप्राणित हो रहा हो। मध्यकालीन इतिहास के तथ्य के रूप में हमें जो कुछ मिलता है उसका चुनाव ऐसे इतिहासकारों की ऐसी पीढ़ियों द्वारा किया गया था जिनके लिए धर्म का सिद्धांत और व्यवहार एक पेशा था। इसलिए उन्होंने इसे अत्यंत महत्वपूर्ण माना और इससे संबंधित प्रायः हर चीज लिख लिखे गए। इसके अतिरिक्त जो दूसरी चीजें थीं उन्हें बहुत कम छुआ। अगर अतीत की मानें तो मध्ययुगीन समाज की धार्मिक तस्वीर पर हमें विश्वास करना होगा लेकिन हमारा इतिहासकार यहां अज्ञान का सहारा लेगा और मनुष्य के दूसरे महत्वपूर्ण कार्य-व्यापारों की खोज की तरफ प्रवृत्त होगा। लेकिन इसके लिए जगह बहुत कम बचती है क्योंकि इतिहासकारों की अनेक व्यतीत पीढ़ियों के मृत हाथों ने, अज्ञात लेखकों तथा तिथिविदों ने हमारे अतीत का सांचा पूर्व-निश्चित तरीके से गढ़ लिया है, जिसके खिलाफ किसी सुनवाई की कोई संभावना नहीं है। मध्ययुगीन मनुष्य की यह धार्मिक तस्वीर सच्ची हो या झूठी, तोड़ी नहीं जा सकती। उसके बारे में आज जो भी तथ्य हमें प्राप्त हैं, हमारे लिए उसका चुनाव बहुत पहले ऐसे लोगों द्वारा किया गया जो उनमें विश्वास रखते थे और चाहते थे कि दूसरे भी उनमें विश्वास करें। यहीं एक इतिहासकार अतीत के बेजान हाथों में पड़कर विवश और लाचार हो जाता है क्योंकि तथ्य का एक बहुत बड़ा भाग, जिसमें शायद विरोधी प्रमाण मिलता, नष्ट हो चुका है और जिसे पुनः कभी पाया नहीं जा सकता। अतीत को इतिहास के निर्मम हाथों में लाचार होते देख ही इतिहासकार बैरेकलो ने कहा होगा, ‘हम जो इतिहास पढ़ते हैं-हालांकि वह तथ्यों पर आधारित है, ठीक-ठीक कहा जाए तो एकदम यथातथ्य नहीं है बल्कि स्वीकृत फैसलों का एक सिलसिला है।’
‘अतीत, जिसका इतिहासकार अध्ययन करता है, मृत अतीत नहीं होता बल्कि ऐसा अतीत होता है जो किन्हीं अर्थों में वर्तमान में भी जीवित रहता है।’ अतीत का वह हिस्सा जो वर्तमान के लिए अनुपयोगी हो चला हो, इतिहासकार के लिए किसी काम का नहीं होता। क्रोसे जब यह घोषणा करता है कि सभी इतिहास ‘समसामयिक इतिहास’ होते हैं तो उसका आग्रह आवश्यक रूप से वर्तमान की आंखों से और वर्तमान की समस्याओं के प्रकाश में देखने का है। शायद इसीलिए इतिहास निरंतर गतिशील (परिवर्तनशील) है-अतीत और वर्तमान के बीच एक अंतहीन संवाद के रूप में। और तब ‘अंतिम इतिहास’ (इतिहास का अंत नहीं) जैसी चीज के लेखन को अंजाम देना एक काल्पनिक दुःस्वप्न। इसी के आलोक में किसी देश अथवा जाति के इतिहास-लेखन की विकास-यात्रा को समझा जा सकता है। इसे आधुनिक भरतीय इतिहास लेखन के उदाहरणों से तो और भी स्पष्टता के साथ समझा जा सकता है। यह बात लगभग एक ‘टेक’ की तरह दुहरायी जाती रही है कि भारत में सुसंबद्ध रूप् से इतिहास-लेखन की शुरुआत अंग्रेजों के भारत आगमन से होती है। उसके पहले यहां इतिहास-लेखन का काम छिटपुट रूप में चलता रहा। इस बात से भी अब इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारत के अतीत की खोज का गुरुतर भार अंग्रेजों ने अपने कंधों पर लिया और भारतीयों की आध्यात्मिक समृद्धि के गीत गाए। उन्हीं तथ्यों के आलोक में जर्मनी के इतिहासकारों ने भारत की ‘भौतिक प्रगति’ पर गर्व करना सीखा और इन दोनों से अलग देशी राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने अपने को प्रजातंत्र का संस्थापक सिद्ध किया। तीनों की अतीत-व्याख्या सोद्येश्य थी। इतिहास-दृष्टि में बदलाव के साथ-साथ अतीत के बारे में हमारी धारणाएं भी बदलीं और प्रत्येक बार एक दूसरा ही अतीत हमारी आंखों के सामने जीवित होता रहा। अतीत लगातार बदलता रहा क्योंकि बदलते हुए वर्तमान के उद्येश्य दूसरे थे, बिल्कुल नये प्रयोजन थे। आज जबकि हम आजाद हैं, समय की बिल्कुल दूसरी ही मांग सामने आ चुकी है, हम इतिहास-लेखन की गलतियों को ठीक-ठाक करने में लगे हैं। आज हमारा इतिहास ज्यादा से ज्यादा वस्तुनिष्ठ होने की कोशिश में है। सत्य के करीब होने की एक अजीब छटपटाहट है उसमें। आज यह समय का दबाव ही है कि इतिहास अपने तमाम पूर्वग्रहों और अतिरेकों से अपने को उबारने में लगा है।
अतीत अजीब चीजों का एक विशाल भंडार है जिसके कई हिस्से वर्तमान के लिए अनुपयोगी और अमहत्वपूर्ण हैं। ‘अतीत-दृष्टि’ चीजों को हू-ब-हू उसी शक्ल में ग्रहण करने की सलाह देती है लेकिन इतिहासकार की दृष्टि अथवा कहें कि इतिहास-बोध उसे नये संदर्भों में ही ग्रहण करता है। ऐसा समय की फौरी जरूरतों के हिसाब से होता है। जैसे अगर राष्ट्रीय आंदोलन (भारत का स्वतंत्रता-संघर्ष)के नेताओं और लेखकों ने अतीत की अपनी सोद्येश्य व्याख्या प्रस्तुत की तो हम उसे अनैतिहासिक करार देने का हक (नैतिक) नहीं रखते क्योकि यह उस काल की एक संभव व्याख्या थी। अतीत-दृष्टि के उलट इतिहास-दृष्टि काल और परिस्थिति सापेक्ष होती है। अतीत संभव हो, हिंसा और अत्याचार से पटा हो लेकिन इतिहास-बोध एक खास तरह के ‘सेंसर’ के साथ प्रकट होगा। हम तनिक गौर करें तो पायेंगे कि उन्नीसवीं शती के भारतीय नवजागरण के दिनों में प्रतिक्रियावादी और प्रगतिशील-दोनों ही तबकों के लोग वेदों को उद्धृत कर रहे थे और मनोवांछित व्याख्या सामने ला रहे थे। प्रेमचंद की अतीत-दृष्टि अगर भारत में हिन्दुओं और मुसलमानों के पृथक अस्तित्व को स्वीकारती है तो वहीं उनका इतिहास-बोध इस बात को कहे बगैर नहीं रहता कि आम हिन्दू और मुसलमान की संस्कृति में कोई विभेद नहीं है। ‘इस्लाम का विष-वृक्ष’ के लेखक आचार्य चतुरसेन को ‘इतिहास-बोध’ से शून्य होने के चलते ही प्रेमचंद ने भला-बुरा कहा था। मार्क्स अगर कहता है कि भारतीयों का अपना कोई इतिहास नहीं है, तो निश्चित मानिए, वह इसी ‘इतिहास-बोध’ का प्रश्न खड़ा करता है। प्रेमचंद द्वारा हिन्दू-मुसलमानों के पृथक अस्तित्व की जगह उनकी साझी संस्कृति पर जोर देना ठीक-ठीक इतिहास-बोध का मामला बनता है। भारत की संस्कृति विभिन्न धर्मावलंबियों के आपसी संबंधों के आधार पर निर्मित हुई है।
आज हिन्दी के दलित-विमर्श को भी इसी रोशनी में देखे जाने की जरूरत है। हिन्दी का दलित-विमर्श अब तक के इतिहास-लेखन की ‘वैधता’ को स्वीकार करने से इनकार करता है। साथ ही समय-समय पर भारत में हुए प्रगतिशील आन्दोलनों के महत्व को भी खारिज करता है। वर्ण-व्यवस्था पर गहरी चोट करता है लेकिन उसी ‘अतीत-दृष्टि’ के साथ। किन भौतिक-सामाजिक दशाओं में वह व्यवस्था निर्मित हुई, इसकी व्याख्या उसके पास नहीं है। अतीत के प्रति अंध-श्रद्धा और अंध-विरोध दोनों ही खतरनाक हैं। कुछ लोग अक्सर कहते पाए जाते हैं कि इतिहास, अतीत को ‘जैसा था’, वैसा ही चित्रित करे। ऐसी ‘सदिच्छा’ हो सकती है, लेकिन ‘इतिहास-बोध इसको स्वीकार नहीं करेगा। अगर ठीक ऐसा ही होता तो इतिहास शैतानों की करतूतों से भरा होता और हममें से अधिकतर इसके अध्ययन को एक गैर-जरूरी चीज मानते। अतीत को हमेशा इतिहासकार वर्तमान की रौशनी में देखता है; इसलिए प्रत्येक पीढ़ी के इतिहासकार का अतीत कुछ-कुछ बदला हुआ होता है। प्रत्येक पीढ़ी को इतिहास-लेखन का कार्य-भार अपने दायित्वों में शामिल करना होता है तभी उस पीढ़ी के लिए इतिहास में जगह बन पाती है।
अतीत को समझने के साथ जो प्रक्रिया शुरू होती है उसमें हमारा वर्तमान भी पुरजोर असर ग्रहण करता है। दोनों के बीच की टक्कर और उसका संवाद ही हमारी इतिहास-दृष्टि को अतीत की प्रचलित धारणाओं के रूप में निर्धारित करता है।
गुरुवार, 14 अक्टूबर 2010
कविता की रेजगारी
मेरे हाथ से छूटते शब्द
सोमवार, 11 अक्टूबर 2010
हिन्दी साहित्य का इतिहास (thnx to wikipedia)
साहित्य की दृष्टि से पद्यबद्ध जो रचनाएँ मिलती हैं वे दोहा रूप में ही हैं और उनके विषय, धर्म, नीति, उपदेश आदि प्रमुख हैं। राजाश्रित कवि और चारण नीति, श्रृंगार, शौर्य, पराक्रम आदि के वर्णन से अपनी साहित्य-रुचि का परिचय दिया करते थे। यह रचना-परम्परा आगे चलकर शैरसेनी अपभ्रंश या प्राकृताभास हिन्दी में कई वर्षों तक चलती रही। पुरानी अपभ्रंश भाषा और बोलचाल की देशी भाषा का प्रयोग निरन्तर बढ़ता गया। इस भाषा को विद्यापति ने देसी भाषा कहा है, किन्तु यह निर्णय करना सरल नहीं है कि हिन्दी शब्द का प्रयोग इस भाषा के लिए कब और किस देश में प्रारम्भ हुआ। हाँ, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि प्रारम्भ में हिन्दी शब्द का प्रयोग विदेशी मुसलमानों ने किया था। इस शब्द से उनका तात्पर्य भारतीय भाषा का था।आरंभिक काल से लेकर आधुनिक व आज की भाषा में आधुनिकोत्तर काल तक साहित्य इतिहास लेखकों के नाम शताधिक गिनाये जा सकते हैं । हिन्दी साहित्य के इतिहास शब्दबद्ध करने का प्रश्न अधिक महत्वपूर्ण था।
आरंभिक काल
आरंभिक काल में मात्र कवियों के सूची संग्रह को इतिहास रूप में प्रस्तुत कर दिया गया। भक्तमाल आदि ग्रंथों में यदि भक्त कवियों का विवरण दिया भी गया तो धार्मिक दृष्टिकोण तथा श्रध्दातिरेक की अभिव्यक्ति के अतिरिक्त उसकी और कुछ उपलब्धि नहीं रही। 19वीं सदी में ही हिन्दी भाषा और साहित्य दोनों के विकास की रूपरेखा स्पष्ट करने के प्रयास होने लगे। प्रारंभ में निबंधों में भाषा और साहित्य का मूल्यांकन किया गया जिसे एक अर्थ में साहित्य के इतिहास की प्रस्तुति के रूप में भी स्वीकार किया गया। डॉ. रूपचंद पारीक, गार्सा-द-तासी के ग्रंथ इस्त्वार द ल लितरेत्यूर ऐन्दूई ऐन्दूस्तानी को हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास मानते हैं। उन्होंने लिखा है - हिन्दी साहित्य का पहला इतिहास लेखक गार्सा-द-तासी हैं, इसमें संदेह नहीं है। परंतु डॉ.किशोरीलाल गुप्त का मंतव्य है- तासी ने अपने ग्रंथ को हिन्दुई और हिन्दुस्तानी साहित्य का इतिहास कहा है, पर यह इतिहास नहीं हैं, क्योंकि इसमें न तो कवियों का विवरण काल क्रमानुसार दिया गया है, न काल विभाग किया गया है और अब काल विभाग ही नहीं है तो प्रवृत्ति निरूपण की आशा ही कैसे की जा सकती है। वैसे तासी और सरोज को हिन्दी साहित्य का प्रथम और द्वितीय इतिहास मानने वालों की संख्या अल्प नहीं है परंतु डॉ. गुप्त का विचार है कि ग्रियर्सन का द माडर्न वर्नाक्यूलर लिटरेचर ऑफ हिन्दुस्तान हिन्दी साहित्य का प्रथम इतिहास है।डॉ.रामकुमार वर्मा ने इसके विपरीत अनुसंधानात्मक प्रवृत्ति की दृष्टि से तासी के प्रयास को अधिक महत्वपूर्ण निरूपित किया है।
पाश्चात्य और प्राच्य विद्वानों ने हिन्दी के इतिहास लेखन के आरंभिक काल में प्रशंसनीय भूमिका निभाई है। शिवसिंह सरोज साहित्य इतिहास लेखन के अनन्य सूत्र हैं। हिन्दी के वे पहले विद्वान हैं जिन्होंने हिन्दी साहित्य की परंपरा के सातत्य पर समदृष्टि डाली है। अनन्तर मिश्र बंधुओं ने साहित्यिक इतिहास तथा राजनीतिक परिस्थितियों के पारस्परिक संबंधों का दर्शन कराया। डॉ. सुमन राजे के शब्दों में - काल विभाजन की दृष्टि से भी विश्वबंधु विनोद प्रगति की दिशा में बढ़ता दिखाई देता है।
नया युग
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य का प्रथम व्यवस्थित इतिहास लिखकर एक नये युग का समारंभ किया। उन्होंने लोकमंगल व लोक-धर्म की कसौटी पर कवियों और कवि-कर्म की परख की और लोक चेतना की दृष्टि से उनके साहित्यिक अवदान की समीक्षा की। यहीं से काल विभाजन और साहित्य इतिहास के नामकरण की सुदृढ़ परंपरा का आरंभ हुआ। इस युग में डॉ. श्याम सुन्दर दास, रमाशंकर शुक्ल 'रसाल', सूर्यकांत शास्त्री, अयोध्या सिंह उपाध्याय, डॉ. रामकुमार वर्मा, राजनाथ शर्मा प्रभृति विद्वानों ने हिन्दी साहित्य के इतिहास विषयक ग्रंथों का प्रणयन कर स्तुत्य योगदान दिया। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने शुक्ल युग के इतिहास लेखन के अभावों का गहराई से अध्ययन किया और हिन्दी साहित्य की भूमिका (1940 ई.), हिन्दी साहित्य का आदिकाल (1952 ई.) और हिन्दी साहित्य; उद्भव और विकास (1955 ई.) आदि ग्रंथ लिखकर उस अभाव की पूर्ति की। काल विभाजन में उन्होंने कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया। शैली की समग्रता उनकी अलग विशेषता है।
आधुनिक काल
वर्तमान युग में आचार्य द्विवेदी के अतिरिक्त साहित्येतिहास लेखन में अन्य प्रयास भी हुए परंतु इस दिशा में विकास को अपेक्षित गति नहीं मिल पाई। वैसे डॉ. गणपति चंद्र गुप्त, डॉ. रामखेलावन पांडेय के अतिरिक्त डॉ. लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय, डॉ. कृष्णलाल, भोलानाथ तथा डॉ. शिवकुमार की कृतियों के अतिरिक्त काशी नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी द्वारा प्रकाशित हिन्दी साहित्य का इतिहास एवं डॉ नगेन्द्र के संपादन में प्रकाशित हिन्दी साहित्य का इतिहास आधुनिक युग की उल्लेखनीय उपलब्धियां हैं। हरमहेन्द्र सिंह बेदी ने भी हिन्दी साहित्येतिहास दर्शन की भूमिका लिखकर साहित्य के इतिहास और उसके प्रति दार्शनिक दृष्टि को नये ढंग से रेखांकित किया है।
हिंदी साहित्य के इतिहासकार और उनके ग्रंथ
हिंदी साहित्य के मुख्य इतिहासकार और उनके ग्रंथ निम्नानुसार हैं -
1. गार्सा द तासी : इस्तवार द ला लितेरात्यूर ऐंदुई ऐंदुस्तानी (फ्रेंच भाषा में; फ्रेंच विद्वान, हिंदी साहित्य के पहले इतिहासकार)
2. शिवसिंह सेंगर : शिव सिंह सरोज
3. जार्ज ग्रियर्सन : द मॉडर्न वर्नेक्यूलर लिट्रैचर आफ हिंदोस्तान
4. मिश्र बंधु : मिश्र बंधु विनोद
5. रामचंद्र शुक्ल : हिंदी साहित्य का इतिहास
6. हजारी प्रसाद द्विवेदी : हिंदी साहित्य की भूमिका; हिंदी साहित्य का आदिकाल; हिंदी साहित्य :उद्भव और विकास
7. रामकुमार वर्मा : हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास
8. धीरेन्द्र वर्मा : हिंदी साहित्य
9. डॉ नगेन्द्र : हिंदी साहित्य का इतिहास; हिंदी वांड्मय 20वीं शती
10. रामस्वरूप चतुर्वेदी : हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1986
11. बच्चन सिंह : हिन्दी साहित्य का दूसरा इतिहास, राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली,
हिन्दी एवं उसके साहित्य का इतिहास
- ७५० बी. सी. (ईसा पूर्व)- संस्कृत का वैदिक संस्कृत के बाद का क्रमबद्ध विकास ।
- ५०० बी. सी. - बौद्ध तथा जैन की भाषा प्राकृत का विकास (पूर्वी भारत) ।
- ४०० बी. सी. - पाणिनि ने संस्कृत व्याकरण लिखा (पश्चिमी भारत) । वैदिक संस्कृत से पाणिनि की काव्य संस्कृत का मानकीकरण ।
संस्कृत का उद्गम
- ३२२ बी. सी. - मौर्यों द्वारा ब्राह्मी लिपि का विकास।
- २५० बी. सी. - आदि संस्कृत का विकास। (आदि संस्कृत ने धीरे धीरे १०० बी. सी. तक प्राकति का स्थान लिया ।)
- ३२० ए. डी. (ईसवी)- गुप्त या सिद्ध मात्रिका लिपि का विकास ।
अपभ्रंश तथा आदि हिन्दी का विकास
- ४०० - कालीदास ने "विक्रमोर्वशीयम्" अपभ्रंश में लिखी।
- ५५० - वल्लभी के दर्शन में अपभ्रंश का प्रयोग।
- ७६९ - सिद्ध सरहपद (जिन्हें हिन्दी का पहला कवि मानते हैं) ने "दोहाकोश" लिखी।
- ७७९ - उदयोतन सुरी कि "कुवलयमल" में अपभ्रंश का प्रयोग।
- ८०० - संस्कृत में बहुत सी रचनायें लिखी गयीं।
- ९९३ - देवसेन की "शवकचर" (शायद हिन्दी की पहली पुस्तक)।
- ११०० - आधुनिक देवनागरी लिपि का प्रथम स्वरूप।
- ११४५-१२२९ - हेमचंद्राचार्य ने अपभ्रंश व्याकरण की रचना की।
अपभ्रंश का अस्त तथा आधुनिक हिन्दी का विकास
- १२८३ - अमीर ख़ुसरो की पहेली तथा मुकरियां में "हिन्दवी" शव्द का सर्वप्रथम उपयोग।
- १३७० - "हंसवाली" की आसहात ने प्रेम कथाओं की शुरुआत की।
- १३९८-१५१८ - कबीर की रचनाओं ने निर्गुण भक्ति की नींव रखी।
- १४००-१४७९ - अपभ्रंश के आखरी महान कवि रघु।
- १४५० - रामानन्द के साथ "सगुण भक्ति" की शुरुआत।
- १५८० - शुरुआती दक्खिनी का कार्य "कालमितुल हकायत्" -- बुर्हनुद्दिन जनम द्वारा।
- १५८५ - नवलदास ने "भक्तामल" लिखी।
- १६०१ - बनारसीदास ने हिन्दी की पहली आत्मकथा "अर्ध कथानक्" लिखी।
- १६०४ - गुरु अर्जुन देव ने कई कवियों की रचनाओं का संकलन "आदि ग्रन्थ" निकाला।
- १५३२ -१६२३ गोस्वामी तुलसीदास ने "रामचरित मानस" की रचना की।
- १६२३ - जाटमल ने "गोरा बादल की कथा" (खडी बोली की पहली रचना) लिखी।
- १६४३ - रामचन्द्र शुक्ल ने "रीति" के द्वारा काव्य की शुरुआत की।
- १६४५ - उर्दू का आरंभ।
आधुनिक हिन्दी
- १७९६ - देवनागरी रचनाओं की शुरुआती छ्पाई।
- १८२६ - "उदन्त मार्तण्ड" हिन्दी का पहला साप्ताहिक।
- १८३७ - ओम् जय जगदीश" के रचयिता श्रद्धाराम फुल्लौरी का जन्म ।
- १८७७ - अयोध्या प्रसाद खत्री का हिन्दी व्याकरण,(बिहार बन्धु प्रेस)
- १९५० - हिन्दी भारत की राजभाषा के रुप में स्थापित।
- २००० - आधुनिक हिंदी का अंतर्राष्ट्रीय विकास