शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2010

राजू रंजन प्रसाद se saabhar

अतीत और इतिहास का द्वंद्व
एक सामान्य व्यक्ति अतीत और इतिहास को अलगाकर नहीं देखता; अक्सर ही दोनों का प्रयोग समानार्थी की तरह कर डालता है। लेकिन इतिहास का एक सजग पाठक ऐसी गलती से भरसक बचेगा। अतीत एक समग्र अस्तित्व का नाम है जबकि इतिहास हमेशा एक टुकड़ा से ज्यादा कुछ नहीं होता। अतीत एक संपूर्णता का नाम है जबकि इतिहास महज एक चुना हुआ अंश जो इतिहासकार की सदिच्छा, आग्रह और परिवेश की झलक देता है। अतीत की घटनाएं मनुष्य के नियंत्रण से बाहर हैं और इतिहास सदैव हमारी मुट्ठी में, क्योंकि वह इतिहासकार की अपनी रचना है; उसका अपना विवेक बोलता है उसमें। इतिहास हमेशा इतिहासकार की रुचि का दास है और इतिहासकार ठीक उसी तरह से अतीत का। अतीत की घटनाओं में इतिहासकार कोई तब्दीली नहीं ला सकता, किंतु इतिहास की व्याख्या पर उसका पूरा अधिकार बनता है। प्रत्येक इतिहास के पीछे से इतिहासकार की आवाज आती है जिसे स्पष्टता के साथ सुना जा सकता है। ई. एच. कार ने एक बड़ी अच्छी बात कही थी कि इतिहास की किताब पढ़ते हुए उसके पीछे से आनेवाली ध्वनि को सुनो। अगर कुछ सुनाई न पड़े तो समझो या तो तुम बहरे हो या तुम्हारा इतिहासकार एकदम बोदा है। इन अर्थों में अतीत एक टेक्स्ट है और इतिहास उसका पाठ, उसकी व्याख्या। जैसे ही इतिहासकार बदलेगा, टेक्स्ट बदलेगा और बदलेगी उसकी व्याख्या। इसलिए अतीत भी कोई शाश्वत सत्य जैसी चीज न है। आपने भी गौर किया होगा जब एक इतिहासकार दूसरे इतिहासकार पर ऐतिहासिक तथ्यों की अनदेखी करने का आरोप लगाता है! क्या है तथ्यों की अनदेखी का मतलब ? शायद अतीत का निर्मित हो रहा एक नया पाठ जो पारंपरिक पाठ से भिन्नता लिए होता है।

जिस तरह साहित्य सामाजिक यथार्थ का पुनर्सृजन है किन्हीं अर्थों में अतीत और इतिहास का भी वही संबंध है। अतीत इतिहासकार का कच्चा माल है, उसको एक निश्चित शक्ल प्रदान करना इतिहासकार का पुनीत दायित्व। अतीत की घटनाएं क्रमबद्ध हैं, उसमें कहीं क्रमभंग आपको न मिलेगा लेकिन यह मामला बिल्कुल इतिहासकार की रुचि और प्रशिक्षण का है कि किन घटनाओं का वह चुनाव करता है, कौन-सी घटनाएं उसे इतिहास-लेखन की तरफ प्रवृत्त करती हैं। यह भी उसकी इच्छा पर ही निर्भर है कि अतीत के किस विशेष कालखंड को वह अपने अध्ययन का विषय बनाता है। इसमें इतिहासकार की सामाजिक अवस्थिति और मनोदशा की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता।

इतिहास लगभग खंडों में प्रस्तुत किया जाता है; कुछ चीजें अक्सर इस बीच से गायब मिलती हैं। इसलिए इतिहास को एक बड़ी आरी कहा गया है जिसके कई दांत गायब हैं। एक इतिहासकार की यह व्यावहारिक समस्या भी हो सकती है कि समग्र अतीत को वह एक ही साथ प्रस्तुत नहीं कर सकता। यह एक ऐसी समस्या है जिसके लाभ भी हमें खूब मिलते हैं। जिस प्रकार मनुष्य के जीवन के कुछ पहलू अत्यंत गोपनीय हैं और कुछ पर हम पर्दा डाले रहते हैं, ठीक उसी तरह अतीत में कुछ वैसी घटनाएं घट चुकी रहती हैं जो हमारी पकड़ में नहीं होतीं और जिनकी चर्चा अक्सर बहुत प्रीतिकर और उपयोगी भी नहीं होती। यही वह बिंदु है जहां इतिहासकार का इतिहास-बोध महत्वपूर्ण हो उठता है। अतीत के किस हिस्से पर रोशनी डालनी है, इसकी समझ एक इतिहासकार के लिए आवश्यक शर्त की तरह है। अतीत का अपना एक मोह होता है जिसमें सम्मोहन की अजीब शक्ति है! इतिहासकार को अतीत के मोह से लड़ते हुए अपना इतिहास-बोध जाग्रत करना होता है। हालांकि मुक्तिबोध ने अपनी बात एक अन्य संदर्भ में रखी है लेकिन मुझे लिखते बल मिल रहा है कि भावना बच्चा है, अगर उसे आदमी नहीं बना सकते तो उसकी हत्या कर दो। एक इतिहासकार अतीत की घटनाओं से जितना ही टकराएगा, उसकी इतिहास दृष्टि उतनी ही पैनी होगी। बहुत सही समय है एक अंग्रेजी कथन याद करने का, ‘चाइल्ड इज दि फादर ऑफ मैन।’ मनुष्य बनने की प्रक्रिया में एक व्यक्ति को कितना लड़ना होता है अपने बचपने से! जो जितना लड़ पाता है उतना ही बड़ा मनुष्य बन पाता है।

इतिहास अतीत का अध्ययन करता है और हम इतिहास का अध्ययन करते हैं अपने वर्तमान को समझने एवं भविष्य की दिशा तय करने के लिए। अतीत का ज्ञान कोई जरूरी नहीं कि वर्तमान को समझने की कुंजी दे ही। कई बार अतीत हमारे लिए मुश्किलें खड़ी करता है। अतीत एक विशाल सागर की तरह है जिसे पार पाना आसान नहीं होता। इतिहासकार लेटन स्ट्रैची ने, अगर ई. एच. कार द्वारा उद्धृत शब्दों का सहारा लेकर कहूं तो ‘खास शरारती अंदाज’ में कहा हैः ‘इतिहासकार की पहली आवश्यकता है अज्ञान, अज्ञान जो उसके लिए चीजों को स्पष्ट और सरल बनाता है। जो चुनाव करता है और छोड़ता जाता है।’ शायद इसीलिए मध्य युग के बारे में हम पढ़ते हैं तो ऐसा लगता है कि मानों वहां सब कुछ धर्म से अनुप्राणित हो रहा हो। मध्यकालीन इतिहास के तथ्य के रूप में हमें जो कुछ मिलता है उसका चुनाव ऐसे इतिहासकारों की ऐसी पीढ़ियों द्वारा किया गया था जिनके लिए धर्म का सिद्धांत और व्यवहार एक पेशा था। इसलिए उन्होंने इसे अत्यंत महत्वपूर्ण माना और इससे संबंधित प्रायः हर चीज लिख लिखे गए। इसके अतिरिक्त जो दूसरी चीजें थीं उन्हें बहुत कम छुआ। अगर अतीत की मानें तो मध्ययुगीन समाज की धार्मिक तस्वीर पर हमें विश्वास करना होगा लेकिन हमारा इतिहासकार यहां अज्ञान का सहारा लेगा और मनुष्य के दूसरे महत्वपूर्ण कार्य-व्यापारों की खोज की तरफ प्रवृत्त होगा। लेकिन इसके लिए जगह बहुत कम बचती है क्योंकि इतिहासकारों की अनेक व्यतीत पीढ़ियों के मृत हाथों ने, अज्ञात लेखकों तथा तिथिविदों ने हमारे अतीत का सांचा पूर्व-निश्चित तरीके से गढ़ लिया है, जिसके खिलाफ किसी सुनवाई की कोई संभावना नहीं है। मध्ययुगीन मनुष्य की यह धार्मिक तस्वीर सच्ची हो या झूठी, तोड़ी नहीं जा सकती। उसके बारे में आज जो भी तथ्य हमें प्राप्त हैं, हमारे लिए उसका चुनाव बहुत पहले ऐसे लोगों द्वारा किया गया जो उनमें विश्वास रखते थे और चाहते थे कि दूसरे भी उनमें विश्वास करें। यहीं एक इतिहासकार अतीत के बेजान हाथों में पड़कर विवश और लाचार हो जाता है क्योंकि तथ्य का एक बहुत बड़ा भाग, जिसमें शायद विरोधी प्रमाण मिलता, नष्ट हो चुका है और जिसे पुनः कभी पाया नहीं जा सकता। अतीत को इतिहास के निर्मम हाथों में लाचार होते देख ही इतिहासकार बैरेकलो ने कहा होगा, ‘हम जो इतिहास पढ़ते हैं-हालांकि वह तथ्यों पर आधारित है, ठीक-ठीक कहा जाए तो एकदम यथातथ्य नहीं है बल्कि स्वीकृत फैसलों का एक सिलसिला है।’

‘अतीत, जिसका इतिहासकार अध्ययन करता है, मृत अतीत नहीं होता बल्कि ऐसा अतीत होता है जो किन्हीं अर्थों में वर्तमान में भी जीवित रहता है।’ अतीत का वह हिस्सा जो वर्तमान के लिए अनुपयोगी हो चला हो, इतिहासकार के लिए किसी काम का नहीं होता। क्रोसे जब यह घोषणा करता है कि सभी इतिहास ‘समसामयिक इतिहास’ होते हैं तो उसका आग्रह आवश्यक रूप से वर्तमान की आंखों से और वर्तमान की समस्याओं के प्रकाश में देखने का है। शायद इसीलिए इतिहास निरंतर गतिशील (परिवर्तनशील) है-अतीत और वर्तमान के बीच एक अंतहीन संवाद के रूप में। और तब ‘अंतिम इतिहास’ (इतिहास का अंत नहीं) जैसी चीज के लेखन को अंजाम देना एक काल्पनिक दुःस्वप्न। इसी के आलोक में किसी देश अथवा जाति के इतिहास-लेखन की विकास-यात्रा को समझा जा सकता है। इसे आधुनिक भरतीय इतिहास लेखन के उदाहरणों से तो और भी स्पष्टता के साथ समझा जा सकता है। यह बात लगभग एक ‘टेक’ की तरह दुहरायी जाती रही है कि भारत में सुसंबद्ध रूप् से इतिहास-लेखन की शुरुआत अंग्रेजों के भारत आगमन से होती है। उसके पहले यहां इतिहास-लेखन का काम छिटपुट रूप में चलता रहा। इस बात से भी अब इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारत के अतीत की खोज का गुरुतर भार अंग्रेजों ने अपने कंधों पर लिया और भारतीयों की आध्यात्मिक समृद्धि के गीत गाए। उन्हीं तथ्यों के आलोक में जर्मनी के इतिहासकारों ने भारत की ‘भौतिक प्रगति’ पर गर्व करना सीखा और इन दोनों से अलग देशी राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने अपने को प्रजातंत्र का संस्थापक सिद्ध किया। तीनों की अतीत-व्याख्या सोद्येश्य थी। इतिहास-दृष्टि में बदलाव के साथ-साथ अतीत के बारे में हमारी धारणाएं भी बदलीं और प्रत्येक बार एक दूसरा ही अतीत हमारी आंखों के सामने जीवित होता रहा। अतीत लगातार बदलता रहा क्योंकि बदलते हुए वर्तमान के उद्येश्य दूसरे थे, बिल्कुल नये प्रयोजन थे। आज जबकि हम आजाद हैं, समय की बिल्कुल दूसरी ही मांग सामने आ चुकी है, हम इतिहास-लेखन की गलतियों को ठीक-ठाक करने में लगे हैं। आज हमारा इतिहास ज्यादा से ज्यादा वस्तुनिष्ठ होने की कोशिश में है। सत्य के करीब होने की एक अजीब छटपटाहट है उसमें। आज यह समय का दबाव ही है कि इतिहास अपने तमाम पूर्वग्रहों और अतिरेकों से अपने को उबारने में लगा है।

अतीत अजीब चीजों का एक विशाल भंडार है जिसके कई हिस्से वर्तमान के लिए अनुपयोगी और अमहत्वपूर्ण हैं। ‘अतीत-दृष्टि’ चीजों को हू-ब-हू उसी शक्ल में ग्रहण करने की सलाह देती है लेकिन इतिहासकार की दृष्टि अथवा कहें कि इतिहास-बोध उसे नये संदर्भों में ही ग्रहण करता है। ऐसा समय की फौरी जरूरतों के हिसाब से होता है। जैसे अगर राष्ट्रीय आंदोलन (भारत का स्वतंत्रता-संघर्ष)के नेताओं और लेखकों ने अतीत की अपनी सोद्येश्य व्याख्या प्रस्तुत की तो हम उसे अनैतिहासिक करार देने का हक (नैतिक) नहीं रखते क्योकि यह उस काल की एक संभव व्याख्या थी। अतीत-दृष्टि के उलट इतिहास-दृष्टि काल और परिस्थिति सापेक्ष होती है। अतीत संभव हो, हिंसा और अत्याचार से पटा हो लेकिन इतिहास-बोध एक खास तरह के ‘सेंसर’ के साथ प्रकट होगा। हम तनिक गौर करें तो पायेंगे कि उन्नीसवीं शती के भारतीय नवजागरण के दिनों में प्रतिक्रियावादी और प्रगतिशील-दोनों ही तबकों के लोग वेदों को उद्धृत कर रहे थे और मनोवांछित व्याख्या सामने ला रहे थे। प्रेमचंद की अतीत-दृष्टि अगर भारत में हिन्दुओं और मुसलमानों के पृथक अस्तित्व को स्वीकारती है तो वहीं उनका इतिहास-बोध इस बात को कहे बगैर नहीं रहता कि आम हिन्दू और मुसलमान की संस्कृति में कोई विभेद नहीं है। ‘इस्लाम का विष-वृक्ष’ के लेखक आचार्य चतुरसेन को ‘इतिहास-बोध’ से शून्य होने के चलते ही प्रेमचंद ने भला-बुरा कहा था। मार्क्स अगर कहता है कि भारतीयों का अपना कोई इतिहास नहीं है, तो निश्चित मानिए, वह इसी ‘इतिहास-बोध’ का प्रश्न खड़ा करता है। प्रेमचंद द्वारा हिन्दू-मुसलमानों के पृथक अस्तित्व की जगह उनकी साझी संस्कृति पर जोर देना ठीक-ठीक इतिहास-बोध का मामला बनता है। भारत की संस्कृति विभिन्न धर्मावलंबियों के आपसी संबंधों के आधार पर निर्मित हुई है।

आज हिन्दी के दलित-विमर्श को भी इसी रोशनी में देखे जाने की जरूरत है। हिन्दी का दलित-विमर्श अब तक के इतिहास-लेखन की ‘वैधता’ को स्वीकार करने से इनकार करता है। साथ ही समय-समय पर भारत में हुए प्रगतिशील आन्दोलनों के महत्व को भी खारिज करता है। वर्ण-व्यवस्था पर गहरी चोट करता है लेकिन उसी ‘अतीत-दृष्टि’ के साथ। किन भौतिक-सामाजिक दशाओं में वह व्यवस्था निर्मित हुई, इसकी व्याख्या उसके पास नहीं है। अतीत के प्रति अंध-श्रद्धा और अंध-विरोध दोनों ही खतरनाक हैं। कुछ लोग अक्सर कहते पाए जाते हैं कि इतिहास, अतीत को ‘जैसा था’, वैसा ही चित्रित करे। ऐसी ‘सदिच्छा’ हो सकती है, लेकिन ‘इतिहास-बोध इसको स्वीकार नहीं करेगा। अगर ठीक ऐसा ही होता तो इतिहास शैतानों की करतूतों से भरा होता और हममें से अधिकतर इसके अध्ययन को एक गैर-जरूरी चीज मानते। अतीत को हमेशा इतिहासकार वर्तमान की रौशनी में देखता है; इसलिए प्रत्येक पीढ़ी के इतिहासकार का अतीत कुछ-कुछ बदला हुआ होता है। प्रत्येक पीढ़ी को इतिहास-लेखन का कार्य-भार अपने दायित्वों में शामिल करना होता है तभी उस पीढ़ी के लिए इतिहास में जगह बन पाती है।

अतीत को समझने के साथ जो प्रक्रिया शुरू होती है उसमें हमारा वर्तमान भी पुरजोर असर ग्रहण करता है। दोनों के बीच की टक्कर और उसका संवाद ही हमारी इतिहास-दृष्टि को अतीत की प्रचलित धारणाओं के रूप में निर्धारित करता है।

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