मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010

संजीवनी है तुम्हारी आहट


 

संजीवनी है तुम्हारी आहट

जिससे जिन्दा होती है

मेरी वैयक्तिकता

मै जो करते-करते कार्य

हो जाता हूँ यंत्र,

तब

सामान्य होने का सुख बटोरता हूँ

जब तुम देती हो

एक छोटी आवाज़

झील के उस पार से

इधर

कमरे में ताज़ी हवा घुस आती है

पुस्तकों में सिमटे शब्द

बिस्तर पर उतर आते हैं

और

मैं करीने से पलटता हूँ

फिर से

अपनी जिंदगी की किताब को

 

दुनिया की असंख्य संबोधनों में से

यह एक काफी है

जो मुझे मरने नहीं देगी

खास मेरे लिए

जब एक स्वर तैरती है

तुम्हारी

मंदिर में बजती है

भोर की घंटी

नदी में उठती है

कुंवारी लहर

हवा

सोये फूलों को जगा जाती है

और मैं

फिर से गढ़ता हूँ

एक परिभाषा

अपने लिए

क्योंकि

जिंदगी ने कम ही दिए हैं

ऐसे मौके

जब मेरी संवेदना

मेरे शरीर को महसूस करती है .

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