शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

स्वयं में एक मिथक थे डॉ. लोहिया

राम मनोहर लोहिया इतिहास भी हैं और मिथक भी। वे राजनीतिज्ञ भी हैं और धर्मगुरु भी। वे दार्शनिक भी हैं और राजनीतिक कार्यकर्ता भी। सचमुच आज के समाजवादी नेताओं को देखकर यकीन नहीं होता कि उनके आंदोलन में कभी इतनी विलक्षण प्रतिभा रही होगी। जिस तरह वे राम, कृष्ण और शिव को भारतीय पूर्णता का स्वप्न मानते हैं उसी तरह उनको भी भारतीय समाजवाद का स्वप्न माना जा सकता है।

कभी लगता है कि वे भारतीय राजनीति के नचिकेता हैं और अपने प्रश्नों से अपने पिता तुल्य राजनेताओं को उसी तरह व्यथित कर देते हैं जैसे नचिकेता ने अपने पिता वाजश्रवा को किया था। इससे यह भी लगता है कि उनके पास यमराज के पास जाने के अलावा कोई चारा नहीं हैं। लेकिन धर्म, संस्कृति और मिथकों पर सवालों से इतर अपनी व्याख्याओं से जिस तरह वे जनता को साराबोर कर उसे बदलने के लिए प्रेरित करते हैं उससे यह भी लगता है कि उनमें वाजश्रवा के पास लौटने की भी क्षमता है। डॉ. लोहिया अपने विमर्श, अपने कर्म और अपने प्रेम से शिव, राम और कृष्ण के मिलेजुले रूप लगते हैं। उनका यही रूप आगे के किसी समाजवादी आंदोलन को प्रेरित करेगा।
सवाल उठता है कि डॉ. राममनोहर लोहिया जैसे समाजवादी और नास्तिक राजनेता ने मिथक, धर्म और संस्कृति पर इतना समय और दिमाग क्यों खर्च किया? इससे समाज को फायदा हुआ या नुकसान? क्या उनके इसी झुकाव का परिणाम है हिंदी इलाके में हिंदुत्व की राजनीति का उदय? क्या इसीलिए संघ परिवार उन्हें अपने करीब पाता है और कहता रहता है कि उनकी आर्थिक नीतियां कम्युनिस्टों और सांस्कृतिक नीतियां संघ के करीब हैं? या फिर उनके विमर्शों को न समझ पाने के कारण हिंदी इलाके और विशेष तौर पर उनके जन्म क्षेत्र अवध में सांप्रदायिक झंझावात आया जिसके चलते बाबरी मस्जिद को तोड़े जाने का धतकरम किया गया? हिंदुत्ववादियों और डॉ. लोहिया के मिथक मंथन के उद्देश्य बिल्कुल अलग रहे हैं। एक का उद्देश्य सामाजिक कलुष पैदा करना तो दूसरे का उद्देश्य सामाजिक समता और प्रेम पैदा करना रहा है। डॉ. लोहिया मिथकों पर इतना जोर क्यों देते हैं और वे उसमें इतना रस क्यों लेते हैं? दरअसल वे यह बात बार-बार कहते हैं कि पिछले डेढ़ हजार साल में भारतीय इतिहास में न तो कोई बगावत हुई और न ही कोई बड़ा नायक पैदा हुआ। बल्कि इतिहास के इस दौर में भारत में अपने राज्य की अनुपस्थिति भी रही। जब मुगल शासकों के अंतिम दौर में उनका राज्य भारतीय जनता से तादात्म्य स्थापित करने लगा तो अचानक अंग्रेजों की पराया राज्य कायम हो गया। लोहिया के सामने इतिहास छोड़कर मिथक अपनाने के पीछे महज यही कारण नहीं है कि भारतीय इतिहास से ज्यादा मिथक पर जोर देते हैं। वे वास्तव में भारत के लंबे समय से पराजित इतिहास से व्यथित हैं। उन्हें अलीगढ़ स्कूल के इतिहासकारों से लेकर डॉ. ताराचंद और आरसी मजूमदार से इस बात की शिकायत है कि उन्होंने ठीक तरह से इतिहास नहीं लिखा। इतिहास की इस अंधेरी कोठरी से भयभीत डॉ. लोहिया हिंदू धर्म के मिथकों और प्रतीकों में रोशनी और ऊर्जा ढूंढते हैं। यानी इतिहास से निराश लोहिया मिथक और धर्म की तरफ भागते हैं। इस दौरान वे अपने समाजवाद की एक सांस्कृतिक योजना प्रस्तुत करते हैं।
डॉ. लोहिया की बातों को समझने के लिए हमें उनके समय और उद्देश्य पर गौर करना होगा। हमें डॉ. लोहिया के विचारों को समझने के लिए जिन तीन बातों पर विशेष तौर पर ध्यान देना होगा वे हैं :-(1) वे मूलत: कहां के थे? (2)-वे किस बात से सर्वाधिक व्यथित थे? (3)-वे करना क्या चाहते थे?
डॉ. लोहिया का जन्म फैजाबाद जिले(आज के अकबरपुर) में हुआ था जो अवध की राजधानी रहा है और जिसके जुड़वां शहर अयोध्या में राम के जन्म का मिथक लोकआस्था में गहराई से बैठा है। जाहिर है लोहिया को रामराज्य के आदर्श को महात्मा गांधी या किसी और बड़े नेता से सीखने की जरूरत नहीं थी। अवध के कण-कण में राम नाम गूंजता है और वह डॉ. लोहिया में आखिर तक गूंजता रहा। लोहिया पर जर्मनी की पढ़ाई और अमेरिका दौरे की काफी चर्चा होती है, उनकी अखिल भारतीयता भी उनके व्यक्तित्व का महत्वपूर्ण अंग रही है। लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि वे मूलत: अवध के थे। लोहिया के संपूर्ण विमर्श में स्थानीयता का विशेष महत्व रहा है। इसीलिए वे कहते भी हैं कि विश्ववाद की जुबान स्थानीय ही होगी। राम के चरित्र में तमाम कमियां हैं इस बात को लोहिया स्वीकार भी करते हैं फिर भी वे राम को छोड़ने को तैयार नहीं हैं। बालि को छल से मारना, सीता की अग्निपरीक्षा, सीता का वनवास और फिर शंबूक का वध यह सब ऐसे प्रसंग है जिनके कारण अगर लोहिया चाहते तो राम को अपने विमर्श में उसी तरह हाशिए पर फेंक सकते थे जिस तरह वे सीता, सावित्री और वशिष्ठ को दरकिनार करते हैं। लेकिन राम की कमियां जानते हुए भी वे उन्हें अस्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। जाति और यौन(कास्ट एंड जेंडर) के कटघरे तोड़ने के उनके अभियान में राम कहीं आड़े नहीं आते। जबकि उनसे पहले जाति को समूल नाश करने का अभियान चलाने वाले डॉ. अंबेडकर ‘रिडल्स इन हिंदुइज्म’ में राम को सीधे निशाने पर ले चुके थे। इसी के साथ यह भी सच है कि डॉ. लोहिया अंबेडकर से राजनीतिक गठजोड़ भी बनाने के प्रयास में जुटे थे। इससे यह भी लगता है कि लोहिया जाति व्यवस्था को तोड़ना तो चाहते थे लेकिन संवाद के उन उपकरणों को छोड़ना नहीं चाहते थे जो उन्हें उनकी व्यापक रूप से अनपढ़ जनता से बिजली की कौंध की भांति जोड़ देते थे। वे तुलसीदास के रामचरित मानस का असर जनते थे और यह भी जानते थे कि राम का चरित्र भारत ही नहीं पूरे दक्षिण एशिया के जीवन में रचा बसा है। इसलिए संवाद, संप्रेषण और आदर्शों की स्थापना के लिए इस मिथक का इस्तेमाल करते रहना जरूरी है, क्योंकि यह इतिहास से भी ज्यादा ताकतवर है। लेकिन लोहिया के संपूर्ण विमर्श में एक बात स्पष्ट है कि वे राम को कहीं भी इतिहास पुरुष बनाने का प्रयास नहीं कर रहे हैं। वे राम को एक मिथकीय आदर्श बनाए रख कर अपने लोगों में नैतिकता और आदर्श भरना चाहते थे। इसलिए हम एक बात निश्चिंतता के साथ कह सकते हैं कि अगर संघ परिवार के अयोध्या आंदोलन के दौरान डॉ. राममनोहर लोहिया होते तो वे राम को उनके चंगुल से मुक्त कराने में काफी सार्थक सिद्ध होते। चूंकि डॉ. लोहिया का असमय निधन हुआ था, इसलिए उनके लिए बीस-पच्चीस वर्षो की अतिरिक्त आयु पाना कोई चमत्कारिक कल्पना नहीं है। यह महज संयोग नहीं है कि हिंदुत्व के राममंदिर आंदोलन पर कैफी आजमी से लेकर प्रभाष जोशी जिसने भी कठोर और मर्म पर चुभने वाला प्रहार किया वह राम की मर्यादा की आड़ लेकर ही किया। कैफी साहब ने ‘राम का दूसरा वनवास’ और प्रभाष जोशी ने ‘हिंदू होने का धर्म’ लिखकर डॉ. लोहिया का हिंदू बनाम हिंदू का विमर्श ही चलाया।
दूसरा अहम सवाल यह जानना है कि डॉ. लोहिया किस बात से सबसे ज्यादा व्यथित थे? डॉ. लोहिया के व्याख्यानों को गौर से देखें तो साफ लगता है कि वे इस बात से सबसे ज्यादा बेचैन थे कि भारत गुलाम क्यों हुआ? वह बार-बार लूटा क्यों गया? उसे बाहर से आने वालों ने बार-बार क्यों रौंदा? यह उनकी चिंता का मूल प्रश्न था। वे लगातार इसके कारणों की खोज करते हैं। पर वे उनकी खोज बाहर नहीं भीतर ज्यादा करते हैं। इस मामले में वे गांधी के करीब हैं। गांधी मानते थे कि हम कहीं भी कायर और कमजोर नहीं थे। लेकिन हमें लालच ने घेर लिया इसलिए अंग्रेज हमें गुलाम बना ले गए। डॉ. लोहिया यहां उनसे थोड़े अलग हैं। वे इसके मूर्त और अमूर्त दोनों कारणों को भारतीय समाज के भीतर ही देखने की कोशिश करते हैं। वे मानते हैं कि भारत की जाति व्यवस्था और औरतों को गुलाम बनाने वाले समाज ने हमें भीतर से कमजोर कर दिया इसलिए हम गुलाम बनाए जा सके। एक तरफ हमारे धर्म दर्शन ने बहुत ऊंची-ऊंची बातें कीं और दूसरी तरफ या तो समाज को उपेक्षित छोड़ दिया या उसमें ऐसी निम्न स्तरीय व्यवस्था बना दी जो इंसान को इंसान मानने को तैयार ही नहीं थी। भारत और यूरोपीय दिमाग के दार्शनिक अंतर और भारत के पाखंड को वे कुछ इस तरह व्यक्त करते हैं:-‘‘यूरोपीय दिमाग ने विचार और व्यवहार की रिक्ति को अस्वीकार किया है और वास्तव में इसे सिद्धांत के छद्म आवरण में छुपाया है। लेकिन भारतीय दिमाग अलग तरह का है। इस अंतर को समझने की प्रक्रिया में उसने आदर्श और यथार्थ के बीच पूर्ण संबंध विच्छेद माना है। शंकराचार्य भारतीय दिमाग का सही प्रतिनिधित्व करते हैं। मन की उड़ान से उन्होंने लौकिक और पारलौकिक सत्य को जुदा कर दिया है। इस प्रकार आदमी के दिमाग को इस तरह बना दिया है कि वह न केवल आदमी और पत्थर में भेद करता है, बल्कि जातिभेद भी करता है और बना रहता है अद्वैतवादी। उसने भारतीय दिमाग को यथार्थ से आदर्श को अलग करने की क्षमता दे दी।’’

इस अंतर को वे संक्षेप में इस तरह व्यक्त करते हैं:- ‘‘यूरोपीय दिमाग ने आदर्श और यथार्थ की पूर्ण एकता मान ली है, जबकि भारतीय दिमाग ने दोनों के बीच पूर्ण विच्छेद मान लिया है। यही मानव सोच का वर्तमान संकट है।’’
डॉ. लोहिया इस संकट का समाधान ढूंढने में लगे थे। लेकिन उनका जोर भारत पर था। वे मानते थे कि भारत अपने इसी दिमाग और जाति और यौन (कास्ट एंड जेंडर) संबंधी भेदभाव के कारण गुलाम हुआ है, इसलिए जितनी जल्दी हो सके इन कारणों को मिटाया जाए। ताकि भारत न सिर्फ मजबूत होकर उभरे बल्कि फिर कभी गुलाम न हो। इसलिए उनके जैसा तर्कना बुद्धि वाला व्यक्ति भी कई बार उन अंधविश्वासी बयानों को स्वीकार कर लेता है, जिनसे समाज को गुलाम बनाने वाली बीमारियां दूर होती हैं। उन्हें बिहार में आए भूकम्प के बाद महात्मा गांधी के उस बयान को स्वीकार करने में कोई दिक्कत नहीं हुई, जिसमें उन्होंने कहा था कि यह भूकम्प वहां के समाज में व्याप्त छुआछूत के कारण आया है। वे नारी आदर्शों के बारे में हिंदी इलाकों में बनी रूढ़ियों को तोड़ना चाहते थे इसीलिए उन्होंने सावित्री या द्रौपदी का विमर्श छेड़ा। इन मिथकों की और भी तरीके से व्याख्या की जा सकती है और सावित्री में तमाम गुणों को ढूंढा जा सकता है और द्रौपदी में तमाम कमियां निकाली जा सकती हैं। लेकिन वे जिस समय भारतीय और विशेषकर हिंदी समाज से संवाद कर रहे थे वह उस समय ज्यादा शिक्षित तो क्या पर्याप्त साक्षर भी नहीं था। वहां की महिलाओं को सीता और सावित्री का आदर्श घुट्टी में पिलाया गया था। वहां रामायण तो अखंड पाठ के रूप में स्वीकृत था लेकिन महाभारत को घर में रखने और पढ़ने को अशुभ माना जाता था। कहा जाता था कि अगर महाभारत का पाठ घर में किया जाएगा तो जरूर विग्रह हो जाएगा। ऐसे में द्रौपदी को आदर्श बताकर डॉ. लोहिया ने क्रांतिकारी स्थापना दी । उनकी इस स्थापना का महत्व इस बात से भी लिया जा सकता है कि आज भी किसी खुली सभा में कोई राजनेता इस तरह की बहस नहीं चला सकता।
डॉ. लोहिया के धार्मिक और मिथकीय विमर्शों का तीसरा उद्देश्य भारत की एकता के हर संभव सूत्र तलाशना और उसे मजबूत करना था। यह खंडन-मंडन से अलग उनका सकारात्मक प्रयास था। उनके मन पर भारतीय गुलामी का ही आघात नहीं था बल्कि भारत के विभाजन का भी गहरा घाव था। वे उसे मिटाने के लिए भारत और पाक महासंघ बनाने का राजनीति कार्यक्रम प्रस्तुत करते रहते थे। लेकिन उन्हें उत्तर-दक्षिण, पूरब और पश्चिम में भी टकराव और विभाजन का डर घेरे हुए था। वे अपने समय में दक्षिण का द्रविड़ आंदोलन देख ही रहे थे और नगाओं की नाराजगी का अहसास भी कर रहे थे। उन्होंने नेफा पर चीन का हमला देखा था और कश्मीर की समस्या से परिचित थे ही। ऐसे में वे कभी नेफा को उर्वशीयम बताते हुए उसे अपना अंग बताते थे तो कभी राम, कृष्ण और शिव के माध्यम से पूरब-पश्चिम और उत्तर-दक्षिण को जोड़ते थे। इसी सिलसिले में वे कहते हैं :- ‘‘कैलाश से मानसरोवर तक दोनों बाजुओं के पार देश प्राय: एक ही रहा है। तथा और किसी से बढ़कर धर्म ने उसे एक किया है, किंतु इस धर्म में निस्संदेह कोई कमी जरूर है जिसने कभी-कभी इस एकता को शिथिल बनाया और उसकी आजादी छीन ली। ….’’
इससे आगे वे हिंदू धर्म में एकता के गुणों का बखान करते हुए कहते हैं,‘‘ हिंदू धर्म कम से कम अपने भक्ति रूप में उत्तर-दक्षिण एकता के एक, दूसरे पूरब-पश्चिम एकता के और तीसरे, विशेषत: अपनी पत्नी के द्वारा चौतरफा एकता के देवता का बहुत बढ़िया किस्सा है।’’ भारत की भौगोलिक और सांस्कृतिक एकता के इन किस्सों को डॉ. लोहिया राष्ट्रनिर्माण के उद्देश्य से राजनीतिक अर्थ देते हैं। कृष्ण का द्वारका में बसना ही नहीं इम्फाल से रुक्मिणी को ब्याहना भी एकता का एक प्रतीक है। राम का वनवास के लिए दक्षिण में जाना और सीता को मुक्त कराने के लिए कोल, भील, किरात, वनवासियों और वानर-भालुओं की सेना बनाना भी एकता कायम करने वाला ही मिथक है। शिव के बारे में तो कहा ही जाता है कि वे तो दक्षिण से कैलाश पर्वत पर जाकर ससुराल में ही बस गए। शिव के मिथक की उनकी व्याख्या कई बार असाधारण आयाम छू लेती है। वे कहते हैं कि शिव का हर कर्म स्वतंत्र है। वे किसी भी तरह से कार्य-कारण के सिद्धांत से नहीं बंधे नहीं है। एक प्रसंग में ब्रह्मा और महेश के झगड़े को निपटाते हुए शिव उनमें से एक से कहते हैं कि जाओ मेरी जटाओं को अंतिम छोर पता करो तो दूसरे से कहते हैं कि जाओ मेरे पैरों का विस्तार ढूंढो। इस प्रयास में दोनों थक-हार कर लौट आते हैं और विवाद धरा का धरा रह जाता है। इसी तरह एक और प्रसंग में एक नृत्य प्रतियोगिता में पार्वती शिव को बार-बार पराजित करती हैं। लेकिन अंत में शिव अपना पैर थोड़ी अशोभनीय मुद्रा में उठा देते हैं जिसका मुकाबला पार्वती नहीं कर पातीं और शिव जीत जाते हैं। स्त्री-पुरुष प्रतिस्पर्धा की यह कथा पौराणिक युग की तरह आज भी बेहद मानवीय और लोकजीवन के करीब है। कृष्ण के मिथक को महात्मा गांधी से जोड़ते हुए शिव कहते हैं कि एक का जन्म यमुना नदी के किनारे हुआ और उसका निधन काठियावाड़ में साबरमती के पास हुआ तो दूसरे का जन्म काठियावाड़ इलाके में हुआ पर उनकी मृत्यु (या हत्या) यमुना नदी के किनारे हुई।
मिथकों से एकता कायम करने और उनसे खेलने का उनका उद्देश्य तब और स्पष्ट हो जाता है जब वे रामायण मेले के उद्देश्य को स्पष्ट करते हैं। उनका कहना है कि उनके रामायण मेले का उद्देश्य है:-आनंद, दृष्टि, रस संसार और हिंदुस्तान को बढ़ावा।
एकता के इसी मूल भावना के वशीभूत होकर अवधूत लोहिया जब अनहद पर जाकर विहंगम दृष्टि डालते हैं तो उन्हें धर्म और राजनीति के मूल तत्व में कोई फर्क नहीं नजर आता। दरअसल दोनों ही मानवीय विचार और कर्म हैं फर्क उनके दायरे का है। उनका यह कथन अच्छे या बुरे दोनों अर्थों में बार-बार प्रमाणित होता है कि ‘‘ धर्म मुझे प्राय: दीर्घकालिक राजनीति के अलावा कुछ और प्रतीत नहीं हुआ है, निरंतर राजनीति। उसी तरह से राजनीति मुझे अल्पकालिक धर्म लगता है, प्रवाहमान धर्म। धर्म के संस्थापक ईसा और मोहम्मद जैसे लोग हुए हैं। जिनके राजनीतिक लक्ष्य थे।’’

आज अगर सैमुअल हंटिग्टन के सभ्यताओं के संघर्ष के सिद्धांत पर काम करने वाले अमेरिकी राज्य और उसी की तर्ज पर प्रतिक्रिया जता रहे अरब देशों पर नजर डालें तो साफ लगता है कि लोहिया की स्थापना में एक वैज्ञानिक दृष्टि है। पर उन्होंने अगर धर्म की परमाणु ऊर्जा को शांति के उद्देश्य से ढूंढा था तो उसका उपयोग एटम बम के लिए हो रहा है। यहां फिर इस बात का उल्लेख जरूरी है कि डॉ. लोहिया एक राजनेता थे और वे मिथक, धर्म और संस्कृति और अर्थशास्त्री सभी का उपयोग मानव कल्याण के लिए करना चाहते थे। वे चाहते थे कि- शक्ति के विद्युत कण जो व्यस्त विकल बिखरे हैं, हों निरुपाय। समन्वय उनका करें समस्त विजयनी मानवता हो जाए।
लेकिन यहां फिर गांधी की वह चेतावनी दोहराई जानी चाहिए कि सत्याग्रह का उपयोग सभी को नहीं करना चाहिए। इसी प्रकार राजनीति के लिए धर्म और मिथक का उपयोग सभी को नहीं करने देना चाहिए। वह एंटीबायोटिक की तरह से है। अगर उसका नुस्खा डॉ. राममनोहर लोहिया जैसा कोई सुयोग्य डॉक्टर लिखेगा तो उससे मरीज को फायदा होगा। लेकिन अगर कोई नीम-हकीम उसका इस्तेमाल करेगा तो समाज में प्रतिक्रिया होगी और उसमें विकार उत्पन्न होगा।
(प्रस्तुत निबंध साहित्य अकादेमी की तरफ से डॉ. राममनोहर लोहिया की जन्मशती के मौके पर 18-20 फरवरी के बीच आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में एक परचे के तौर पर पढ़ा गया।


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें