रविवार, 10 अक्तूबर 2010

सद्भाव की राजनीती नहीं हो सकती है क्या ?

राम जन्मस्थान और बाबरी मस्जिद विवाद में अदालत ने अमन और सद्भाव की एक राह दिखाई है। यह राह किसी एक पार्टी को चुनाव भले न जितवा सके पर इसमें भारतीय समाज की व्यापक जीत दिखाई पड़ रही है।

यह निर्णय सचमुच इतिहास के बोझ को अपनी पीठ से उतार कर आगे चलने और उसे उसकी जगह पर स्थापित करने की सीख है। इस राह को इस देश की जनता देख रही है, अयोध्यावासी देख रहे हैं, मुकदमे के पक्षकार हासिम अंसारी भी देख रहे हैं।

तमाम आशंकाओं और अनिश्चितताओं के बावजूद जनता ने 30 सितंबर को जिस अद्भुत संयम और सद्भावना का परिचय दिया है, उसको देखकर दुनिया ही नहीं खुद भारतवासी भी हैरान हैं। यह कानून के राज और न्यायपालिका में बढ़ती हमारी आस्था और हजारों साल के समन्वय वाले महान भारत की झलक है।

भारतीय जनता का यह संयम 1992 के इतिहास पर हंसने और नए भारत के भविष्य के सपने देखने का विश्वास देता है, लेकिन जिन्हें राजनीति करनी है, वे इस समझदारी को नहीं देख रहे हैं। इसे वे भी नहीं देख रहे हैं, जिनके लिए अयोध्या एक बहाना था और असली मकसद नफरत फैलाना था। वे भी नहीं देख रहे हैं, जिनके लिए यूरोप के चर्च और राज्य के संबंधों के आधार पर गढ़ी गई धर्मनिरपेक्षता की एक कठोर और नास्तिक परिभाषा में किसी तरह का कोई रूपांतरण नहीं किया जा सकता।

हमारे संविधान की प्रस्तावना में लिखी गई धर्मनिरपेक्षता की कोई परिभाषा कहीं नहीं दी गई है और उसकी विद्वान अपने-अपने ढंग से व्याख्या करते रहे हैं। इसी के चलते कई बार विवाद भी होता है। इसी नाते अदालत ने धर्मनिरपेक्षता की यूरोपीय परिभाषा से हटकर भारत की सांप्रदायिक सद्भावना के सिद्धांत को ध्यान में रखकर फैसला दिया है।

हमारा स्वाधीनता संग्राम और उसके नायक महात्मा गांधी इसी भावना के आधार पर देश का निर्माण करना चाहते थे। यह भावना साझी विरासत और साझी शहादत की है। दिक्कत यह है कि जनता इस भावना को आगे बढ़ाते हुए राजनीतिक और सामाजिक सुलह का मानस बना रही है, तो राजनीतिक दल इसमें अपने-अपने वोट बैंक और कट्टरता के लिहाज से इसकी गलत व्याख्या करने में लग गए हैं।

कोई कह रहा है कि इस फैसले से हमारा कोई लेना-देना नहीं और इसे लागू करने की जिम्मेदारी हम नहीं ले सकते। दूसरी तरफ यह दावे भी जोर- शोर से किए जा रहे हैं कि यह फैसला कानून और साक्ष्य पर नहीं, आस्था के आधार पर दिया गया है। यह सुलह और सद्भाव की राह में कांटे बोने का प्रयास है।

हमें ध्यान रखना होगा कि अभी यह निर्णय तीन महीने तक लागू नहीं होगा और जो भी पक्ष असंतुष्ट हैं, उनके लिए सुप्रीम कोर्ट जाने का रास्ता खुला हुआ है। यहां यह भी ध्यान देने की बात है कि यह फैसला छह दिसंबर 1992 की घटना पर नहीं आया है। अभी जो फैसला आया है, वह भारतीय विधि शास्त्र और हमारी न्यायपालिका के विवेक की एक झलक है। इस पर सर्वोच्च न्यायपीठ की दृष्टि अभी पड़नी बाकी है।

राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे इसे आइडियोलॉजी का मुद्दा न बनाकर आम राय बनाकर निपटाएं। अगर वे अब भी ऐसा नहीं कर सकते तो इसे अपनी न्यायिक यात्रा पूरी करने दें। हो सकता है उसके बाद किसी नवीन दृष्टि की प्राप्ति हो या तब तक हमारी राजनीतिक समझ का स्तर और ऊंचा उठ जाए।

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