रविवार, 17 अक्तूबर 2010

मोहल्ला live से साभार

निष्पक्ष दृष्टिकोण जैसी कोई चीज नहीं होती

एडवर्ड सईद (1 नवंबर, 1935 – 25 सितंबर, 2003) लंबे समय तक कोलंबिया विश्वविद्यालय में अंग्रेजी भाषा और तुलनात्मक साहित्य के प्रोफेसर रहे। फिलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के लिए राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में काम करने वाले सईद की प्रतिष्ठा उत्तर-औपनिवेशिक सिद्धांतकार व साहित्य-आलोचक के रूप में है।

बुद्धिजीवियों की भूमिका पर एडवर्ड सईद

हां तक मेरा सवाल है बौद्धिक योग्यता बीए की डिग्री लेने या पीएचडी पूरी कर लेने या कुछ भी ऐसी उपलब्धि हासिल कर लेने से, जिसे शिक्षा कहा जाए, बिलकुल अलग है। बौद्धिक योग्यता एक भिन्न चीज है। यह बाद में तब पैदा होती है, जब हम विश्वविद्यालय छोड़कर समाज के नागरिक बनते हैं।

एक अरसे से यह मेरा विश्वास रहा है कि बुद्धिजीवी की भूमिका जड़ता को तोड़ने, सवाल उठाने तथा ऐसी बातें कहने की होती है जिसे दूसरे लोग नहीं कहेंगे, तथा जो स्थितियां हैं, जानी समझी जिनके साथ तालमेल बैठा कर हममें से ज्यादातर लोग जीते हैं, उनके आगे जाने की हिम्मत बुद्धिजीवी दिखाते हैं। महान अमेरिकी समाज शास्त्रीय सी राइट मिल्स का कहना है – ‘स्वतंत्र बुद्धिजीवी उन गिनीचुनी हस्तियों में से होता है, जो जीवन को एक सांचे में ढालकर उसे निर्जीव बनाने की प्रक्रिया का प्रतिरोध करता है तथा उसके खिलाफ संघर्ष करने के लिए तैयार रहता
है।’

नये विचारों में दृष्टि व बुद्धि के रूढ़िवाद को, जो हमें दलदल में फंसाते हैं, लगातार बेनकाब करने तथा तोड़ने की क्षमता होती हैं। कभी कभी हमें महसूस होता है कि हम खबरों के समुद्र में डूब रहे हैं, कभी कभी ये खबरें अतंर्विरोधी तथा आमतौर पर दुहराव भरी व एक खास आग्रह से युक्त होती है। लोक कला व लोक चिंतन के ये क्षेत्र राजनीति व स्वार्थ के मांगों के अनुरूप तेजी से ढल रहे हैं। समाचार पत्रों व सरकार में बेठे लोगों के बयानों में से यह सब चीजें विश्व स्तर पर देखने को मिलती हैं। चाहे वे टीवी इश्तेहार हो, टीवी समाचार हो या वृत्तचित्र हो लोक प्रतिनिधित्‍व की सभी व्यवस्थाओं में खबरें तैयार करने वाले निर्माताओं के हित स्पष्ट तौर पर झलकते हैं। मैं समझता हूं कि इस बारे में हमारा दिमाग बहुत साफ होना चाहिए। निष्पक्ष दृष्टिकोण जैसी कोई चीज नहीं होती।

सभी विचार किसी न किसी नजरिये को दर्शाते हैं। इसलिए मिल्स कहते हैं ‘राजनीति ही वह क्षेत्र है, जिसमें बौद्धिक एकजुटता तथा प्रयास को केंद्रित होना ही चाहिए।’ इतना ही नहीं, यदि विचारक राजनीतिक संघर्ष में स्वयं को सत्य के मूल्य से नहीं जोड़ पाता है तो वह किसी भी जीते जागते अनुभव से जिम्मेदारी के साथ नहीं निपट सकता है। समकालीन मीडिया के विरोधभासपूर्ण, असंगत व बाहरी लोक अनुभवों से सच्चाई को अलग करने की योग्यता हममें होनी ही चाहिए। सिर्फ मीडिया ही हमारी जिंदगी के पूरे दायरे पर भी यही बात लागू होती है।

दुनिया जिसमें हम जीते हैं, प्राप्त विचारों से भरी हुई होती है। लोग कहते हैं – ‘इसी तरह के हम कार्य करते हैं, यही यथास्थिति है, आपको इसी राह पर चलना चाहिए।’ और मेरे लिए बुद्धिजीवी की भूमिका यह है कि वह यथास्थिति पर प्रश्न उठाये, सत्ता को चुनौती दे, खबरों की, सरकारी रिपोर्टों की तह तक पहुंचने की कोशिश करे, विद्वता और ज्ञान के रूप में जो प्रदान किया जा रहा है, उसकी सतह के नीचे तक पहुंचने का प्रयास। अतः आप देखेंगे कि यह प्रक्रिया तब शुरू होती है, जब हम छात्र होते हैं तथा जब हम समाज के नागरिक बन जाते हैं, तब भी यह चलती रहती है। ऐसा करना सच्चाई जानने का एक तरीका है। अब देखें कि बुद्धिजीवियों की खास समस्याएं क्या हैं? सबसे पहले तो हमें तय करना होगा कि क्या सभी बुद्धिजीवी होते हैं या फिर चंद लोग।

इटली के महान मार्क्सवादी ग्राम्शी ने, जो बुद्धिजीवियों के विषय में लिखने वाले 20वीं शताब्दी के पहले विचारक थे, कहा था कि मानव बुद्धिजीवी होता है क्योंकि उसके पास बुद्धि होती है। परंतु समाज में हर व्यक्ति की भूमिका बुद्धिजीवी की नहीं होती। एक दूसरे महत्वपूर्ण यूरोपीय विचारक जूलियन बेंडा ने, जो काफी दक्षिणपंथी विचारक थे, 1920 के दशक के अंत में बिट्रेयल ऑफ इंटलेक्चुअल नामक एक पुस्तक लिखी जिसमें कहा कि बुद्धिजीवी गिने चुने ही होते हैं क्योंकि वास्तव में बुद्धिजीवी वह होता है जो एक तरह का ‘आउटसाइडर’ होता है, जो यथास्थिति को चुनौती देता है और इस तरह के सवाल उठाता है जिस तरह के सवाल पहले कभी नहीं उठाये गये।

इसलिए एक खास मायने में बुद्धिजीवी ओल्ड टैस्टामेंट के पैगंबर जैसा पैगंबर होता है, जो ऐसे सवाल उठाता है, जिसे कोई उठाने को तैयार न हो तथा जिसका जवाब देने को भी स्वाभाविक रूप से कोई इच्छुक न हो। इसलिए मैं मानता हूं कि बुद्धिजीवी होने का मतलब व्यक्ति से उतना अधिक नहीं जितना कि मनोवृत्ति, जीवन की दशा, प्रश्न के स्वरूप, ऊर्जा के रूप से है जो, जैसा कि मैंने पहले ही कहा है, सच्चाई बताने तथा उन बातों को समझने की कोशिश से है जिन्हें उनके समय के लोग समझने की कोशिश नहीं करते हैं या जो समझाया जाता है वही सच मान लेते हैं।


1 टिप्पणी:

  1. संभव है कि आपके ब्‍लॉग पर ज्‍यादा लोग, कमेंट्स न आएं, लेकिन आप अच्‍छा, गंभीर और पठनीय लिख रहे हैं, कविता की समझ मेरी कच्‍ची सी है, इसलिए उस पर कुछ नहीं कहूंगा. गद्य का क्रम जरूर जारी रखें. विषय गंभीर हों तो उनके निर्वाह में अधिक सावधानी की जरूरत होती है, यह सलाह नहीं आपकी पोस्‍ट पढ़ कर मन में आया विचार है.

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