शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

डॉ लोहिया की नर-नारी समता और बहुपत्नी प्रथा की चुनौती

डॉ लोहिया व्यक्ति स्वातंत्रय, समता और प्रेम के अनन्य उपासक थे। पर उनका यह भी मानना था कि स्वतंत्रता और समता के बिना प्रेम संभव नहीं है। इसलिए वे प्रेम की अनिवार्य शर्त के रूप में पहली दोनों स्थितियों को पैदा करना चाहते थे। अपने आदर्शों के समाज की स्थापना के लिए वे मौजूदा समाज की कमियों को चिह्नित करते थे और उन पर न सिर्फ अपने समय के अर्थशास्त्रीय और समाजशास्त्रीय तर्कों से हमला करते थे, बल्कि इस काम में इतिहास और मिथक दोनों का सहारा लेते थे। लेकिन एक बात स्पष्ट है कि आमतौर पर यूरोप के औपनिवेशिक प्रभावों का कठोर प्रतिकार करने वाले डॉ लोहिया जातिगत समानता और नर-नारी समता के मामले में आधुनिक यूरोपीय दृष्टि से गहरे प्रभावित हैं। वे यूरोप और अमेरिका में स्त्री की स्थिति को काफी अच्छा मानते हैं और उसे एक आदर्श के रूप में देखते हैं। इस आधु्निक दृष्टि से वे एशिया और गैर यूरोपीय देशों की तमाम परंपराओं की कड़ी आलोचना करते हैं। हालांकि इस बीच वे भारत के पौराणिक पात्रों में द्रौपदी जैसी क्रांतिकारी प्रतीक ढूंढ लाते हैं और सीता-सावित्री के मुकाबले उन्हें ज्यादा महत्व देने की बात करते हैं। लोहिया के निधन के 43 साल बीत चुके हैं और तब से अब तक स्त्री विमर्श काफी लंबी यात्रा तय कर चुका है। स्त्री विमर्श और स्त्री अधिकारों पर यूरोप और एशिया के बीच कभी बहुपत्नी प्रथा तो कभी हिजाब के रूप में सभ्यताओं का टकराव भी सामने आता रहता है। एक तरफ नर-नारी समता (जेंडर इक्ललिटी) के सिद्धांत के आधार पर पालिगैमी और बुरके को खारिज किया जाता है तो दूसरी तरफ इस्लामी नारीवादी की एक नई धारा उसे व्यावहारिकता और जीवन पद्धति के चयन के लोकतांत्रिक अधिकारों के आधार पर उचित साबित करती है।

इस संदर्भ में डॉ लोहिया का सबसे नवीनतम विचार ‘यौन-शुचिता और नर-नारी संबंध’ शीर्षक से 1967 की जनवरी-फरवरी में (जन-मैनकाइंड के) संपादकीय के रूप में छपा है। संभवत: यही विचार व्यस्थित लेख के रूप में है भी। बाकी उनके स्त्री संबंधी अधिकारों के जो भी विचार हैं वे भाषण के रूप में है। हालांकि तर्क सभी में एक से ही हैं। पर भाषणों में लोगों को प्रेरित करने के लिए अनौपचारिक संवाद ज्यादा हैं। जैसे-बड़ी जाति की स्त्रियों के मन में छोटी जाति के पुरुषों के प्रति आकर्षण या छोटी जाति की स्त्रियों के मन में बड़ी जाति के पुरुषों के प्रति आकर्षण का सरस वर्णन। या फिर इसके विपरीत भी जो कुछ हो सकता है वह सब भी मजेदार रूप में। दरअसल जाति और लिंगभेद को बदल कर रख देने की उनकी इच्छा सारे संबंधों को खंगाल कर रख देना चाहती थी। इसी भावना से उन्होंने 1953 के जनवरी माह में ‘जाति और यौनि के कटघरे’ नामक जोरदार भाषण दिया था। इसमें उन्होंने इन दोनों कटघरों को सभी बीमारियों की जड़ बताते हुए कहा था कि हमें यह गलतफहमी रखनी नहीं चाहिए कि गरीबी दूर कर देने से यह कटघरे टूट जाएंगे। ‘‘जाति और औरत का जो ढांचा इस समय देश में बना हुआ है उससे पतन के अलावा और कोई परिणाम नहीं निकलता। आत्मा के पतन के लिए यह दोनों कटघरे मुख्यत: जिम्मेदार हैं। यह साहस और आनंद की पूरी क्षमता को खत्म कर देते हैं। गरीबी मिटाने से वे खत्म नहीं होते। क्योंकि वे दोनों एक दूसरे के कीटाणुओं पर पनपते हं’’ लेकिन जाति और लिंगभेद को समान रूप से त्याज्य मानने वाले लोहिया के विचारों का प्रतिकार उन्हीं के अनुयायी तब कर बैठते हैं जब स्त्रियों के आरक्षण का सवाल आता है। वे महिलाओं को आरक्षण दिए जाने को पिछड़े वर्गों के खिलाफ एक साजिश मानते हैं। वे यह भी भूल जाते हैं कि डॉ लोहिया की सप्तक्रांतियों में सबसे ऊपर नर-नारी समता का ही एजेंडा रहा है। इस सिलसिले में डॉ लोहिया का मार्च 1960 का ‘सुंदरता और त्वचा का रंग’ का व्याख्यान काफी महत्वपूर्ण है। एक लिहाज से वह बीसवीं सदी के आखिरी दशक के मध्य में आई नौमी वुल्फ की किताब ‘द ब्यूटी मिथ’ का बीज मंत्र लगता है। आज का सौंदर्य प्रसाधन उद्योग जिस तरह त्वचा के रंग की श्रेष्ठता और उसे बदल डॉलने के झूठे मिथक पर फल-फूल रहा है वह भाषण इस तरह के उपभोक्तावाद को समझने की एक कुंजी भी है।

इसी कड़ी में डॉ लोहिया का सबसे महत्वपूर्ण व्याख्यान 22 जून 1962 को नैनीताल में समाजवादी युवजन सभा के प्रशिक्षण शिविर में द्रौपदी या सावित्री पर केंद्रित है। इस भाषण में वे भारतीय नारी के आदर्श को मूल रूप से बदल देने को व्याकुल दिखते हैं। वे द्रौपदी के बहुपतियों के जीवन पर विशेष जोर न देते हुए उसकी पुरुष प्रधानता को चुनौती देने वाले और कभी हार न मानने वाले गुणों की तारीफ करते हैं। यहां वे द्रौपदी के साहस, तर्कशीलता जैसे गुणों की विशेष तारीफ तो करते ही हैं साथ में उसके सांवलेपन को एक सामयिक आदर्श के रूप में स्थापित करते हैं। यहां वे बहुपत्नी प्रथा पर कठोरता पूर्वक प्रहार करते हुए सवाल भी करते हैं, ‘‘औरत को हिंदुस्तान में बहुत ही दुखी बना दिया गया है। हमने कई दफा सोचा कि क्या बात है? अभी उसके ऊपर आखिरी फैसला हम नहीं कर पाए हैं। बहुपत्नी प्रथा हिंदुस्तान में क्यों रही है?…..अब तो गैरकानूनी हो गई है। मुसलमानों में यह प्रथा अब भी है।…लेकिन मैं यह साफ कह देना चाहता हूं कि यह गंदी बात है। मुसलमान औरतें जब बुर्का पहन कर चलती हैं तो कई दफे तबीयत होती है कि कुछ करें। लेकिन क्या बताएं कुछ करने बैठ जाएं तो और गड़बड़ हो जाए। फिर वे कहते हैं कि साहब हमारे धर्म में लिखा हुआ है। चार औरतें तो कर ही सकते हैं। भले मुसलमान हैं वे बताते हैं धर्म में लिखा हुआ है कि चारों के साथ बिल्कुल बराबरी हो। यहीं फिर द्रौपदी वाला किस्सा बता सकते हैं कि इतनी सर्वगुण संपन्न नारी नहीं कर पाई तो चारों के लिए बराबरी दिखा पाएंगे यह बिल्कुल असंभव चीज है।’’ लोहिया अपने विमर्श में यहीं नहीं रुकते बल्कि वे बहुपत्नी प्रथा को खारिज करने के लिए बहुपति प्रथा की चुनौती खड़ी करते हैं। वे कहते हैं, ‘‘मुझे नहीं मालूम कुरान में क्या लिखा है, क्या नहीं लिखा है। मैं खाली कह देना चाहता हूं कि जो मर्द औरत को चार पति रखने की इजाजत नहीं देता है, वह जब कहता है, किसी भी आधार पर, धर्म हो, कि चार औरतें रखने का हक होना चाहिए, तो वह बड़ा गंदा मर्द है। उसको नई दुनिया में रहने की जगह है ही नहीं।’’
हिंदुस्तान और रंगीन नस्ल की बहुपत्नी प्रथा की आलोचना करते हुए वे यूरोप को बेहतर स्थिति में पाते हैं। वे कहते हैं, ‘‘गोरी दुनिया में एक भी उदाहरण मुझे अब तक नहीं मिला है पिछले हजार, दो हजार, चार हजार, पांच हजार वर्ष के इतिहास में जहां किसी मर्द ने, चाहे साधारण मर्द, चाहे राजा मर्द, कोई बहुत बड़ा आदमी जो होता है- एक से ज्यादा औरतों से एक साथ शादी की हो।’’

इस सवाल को वे बहुत मजबूती से उठाते हैं और इसके ऐतिहासिक कारणों में जाने की बेचैनी दिखाते हैं। इसीलिए वे सुझाव भी देते हैं कि इस मामले पर गहन शोध किया जाना चाहिए। वे कहते हैं, ‘‘यह कोई छोटा प्रश्न नहीं है कि गोरी दुनिया में कोई मर्द एक साथ एक से ज्यादा औरत से, साधारण जमाने में शादी नहीं कर पाया, लेकिन हमारी रंगीन दुनिया में उसको यह अधिकार परंपरागत रहा है। यह एक ऐसा विषय है जिसके ऊपर कोई आप में से -बड़ा कठिन विषय है, 5-10 वर्ष लगा सकते हैं-अध्ययन करके कोई किताब लिखो तो बढ़िया चीज होगी।’’

रंगीन (कलर्ड) नस्लों में हिंदू समाज ने बहुपत्नी प्रथा को भले लगभग छोड़ दिया हो पर सभी जातियों ने छोड़ दिया है ऐसा नहीं है। हाल ही में दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति जैकब जूमा ने पांचवीं शादी की तो काफी विवाद हुआ। हालांकि उन्होंने इसे निजी और जुलू समाज का सामुदायिक मामला कह कर सही साबित करने की कोशिश की पर एचआईवी -एड्स से पीड़ित दक्षिण अफ्रीका की सिविल सोसायटी ने काफी हल्ला मचाया। पर बहुपत्नी प्रथा का यह मामला फ्रांस और ब्रिटेन सहित यूरोप के तमाम देशों को परेशान किए हुए है। फ्रांस ने बहुपत्नी प्रथा को लैंगिक समानता के खिलाफ बताते हुए 1993 में इस पर पाबंदी लगा दी। लेकिन अभी भी वहां लाखों लोग ऐसे हैं जो इस प्रथा के साथ जी रहे हैं। वे या तो बाहर से शादी करके वहां गए हैं या फिर कानून उनकी शादी के बाद बना है। वे महिलाओं को बहुपत्नी प्रथा छोड़ने के लिए लालच भी दे रहे हैं। इस प्रथा को मानने वालों में अफ्रीकी मूल के ज्यादा लोग हैं। फ्रांस में हिजाब को लेकर भी विवाद चल ही रहा है। उधर ब्रिटेन में बहुपत्नी प्रथा को इस आधार पर छूट देनी पड़ रही है कि उस व्यक्ति ने अपनी शादी बाहर किसी और देश में की है। विल डुरांट जैसे विद्वानों का मानना है कि बहुपति-प्रथा इस्लाम के उदय के पहले अरब देशों में भी थी। लेकिन वह व्यावहारिक नहीं थी। क्योंकि ऐसी स्थितियों में बच्चों के पितृत्व और उसके लालन-पालन का फैसला मुश्किल हो जाता था। हिस्ट्री ऑफ कल्चर में उन्होंने लिखा है कि बहुपति प्रथा अरब देशों के अलावा भारत के मालाबार इलाके के नायर समुदाय में भी थी। दरअसल यह प्रथा उन लोगों के लिए उपयुक्त थी जो युद्ध लड़ने का काम करते हैं। इसका मकसद यह था कि उनमें से किसी एक पर परिवार के पालन का बोझ न पड़े।
मनोवैज्ञानिक अध्ययनों ने पाया है कि बहुपति प्रथा न तो पुरुष के स्वभाव के अनुकूल है और न ही स्त्री के स्वभाव के। इसलिए यह चल नहीं पायी। इसका हश्र वैसा ही हुआ जैसा सेक्सुल कम्युनिज्म का। कार्ल मार्क्स के सहचिंतक फ्रेडरिक एंगिल्स इस प्रथा के हिमायती थे और उन्होंने रूस की क्रांति के बाद इसे लागू करने का सुझाव दिया था। लेकिन वह प्रयोग विफल रहा क्योंकि वह मनुष्य के स्वभाव के अनुकूल है नहीं।

बहुपत्नी प्रथा के समर्थकों का कहना है कि यह इस्लाम की देन नहीं है। इस्लाम ने इसे व्यवस्थित जरूर किया है पर इसका अस्तित्व इस्लाम से पहले का है। इसके पीछे पुरुषों के मुकाबले विवाह योग्य अधिक महिलाओं का होना एक कारण रहा है। युद्ध में पुरुषों के मारे जाने के कारण उनकी संख्या कम हो जाती थी, जबकि महिलाओं का जीवन राजनीतिक और स्वास्थ्य संबंधी कारणों से भी उतना जोखिम भरा नहीं होता था। इसलिए एक पुरुष के कई महिलाओं से विवाह की परंपरा शुरू हुई। यह स्थिति तब ज्यादा बनी जब मनुष्य और उसके कबीले शिकार पर निर्भर थे और विधिवत राज्य का गठन नहीं हुआ था। बाद में खेतिहर और औद्योगिक समाज बनने के साथ यह प्रथा कमजोर हुई है। लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान एक स्थिति यूरोप में भी ऐसी आई कि बर्ट्रेड रसेल तक को कहना पड़ा कि बहुपत्नी प्रथा होनी चाहिए। बहुपत्नी प्रथा के समर्थकों का कहना है कि यह प्रथा बहुत कुछ पुरुष की आर्थिक और सामाजिक हैसियत पर करती है। लेकिन विद्वानों का यह भी कहना है कि यूरोप की एकपत्नी प्रथा महज कानून की किताबों की चीज है। हकीकत में वहां विवाहेत्तर संबंधों की भरमार है। इसीलिए वैवाहिक जीवन अस्थिर और अल्पजीवी है। एक तर्क यह भी है कि यूरोप अवैध तरीके से चलने वाली बहुपत्नी प्रथा से तो बेहतर पूरब की वैध तरीके से चलने वाली बहुपत्नी प्रथा है। इस सिलसिले में इटली के राष्ट्रप्रमुख बर्लुस्कोनी का उदाहरण पेश किया जाता है। जो एक जिम्मेदार पद पर होते हुए भी अधिकतम महिलाओं से संबंध रखने का रिकार्ड कायम कर रहे हैं। इसी तरह से अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के भी विवाहेतर संबंधों का उदाहरण दिया जा सकता है। इसीलिए एक तर्क यह भी दिया जाता है कि दरअसल बहुपत्नी प्रथा ने एकपत्नी प्रथा को बचाया है। अगर वह न होती तो व्याभिचार ज्यादा होता। यूरोप के आलोचक एक तर्क यह भी देते हैं कि वहां समलैगिंकता को तो अनुमति दी जा रही है लेकिन बहुपत्नी प्रथा को प्रतिबंधित किया गया है। इसी के साथ वेश्यावृत्ति का सवाल भी जुड़ा हुआ है। यूरोप के देशों ने जिस प्रकार वेश्यावृत्ति को एक वैध व्यवसाय के रूप में मान्यता दी है वैसा यूरोप के बाहर के तमाम देश नहीं करना चाहते। यह भी कहा जाता है कि वेश्यावृत्ति वैसे तो दुनिया के सभी समाजों में रही है लेकिन विश्ययुद्ध के दौरान यूरोपीय देशों या फिर युद्ध में शामिल जापान जैसे हमलावर देश ने इसे बड़े पैमाने पर फैलाया। यही आज देह व्यापार के रूप में पूरी दुनिया में जारी है।

डॉ लोहिया जिस मध्य युग में गैर यूरोपीय देशों में महिलाओं की दशा खराब होने का दावा करते हैं उसके बारे में विद्वानों का यह भी मत है कि दरअसल उस दौरान इस्लाम ने महिलाओं को अधिकारों से संपन्न कर गरिमा प्रदान की। वह गरिमा यूरोपीय महिलाओं को बहुत बाद में मिली।

इसलिए जैसा कि डॉ लोहिया भी कहते हैं कि स्त्री और पुरुष संबंधो का आगे का रूप क्या होगा अभी कहा नहीं जा सकता। यह संबंध गतिशील हैं और नए-नए रूप लेते रहेंगे। लेकिन एक बात जो अभी की स्थिति से प्रतीत होती है वह यह है कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में नर-नारी संबंधों के अलग-अलग रूप हैं। उनमें समता कायम करने के प्रयास को विविधता से मदद ही मिलेगी न कि नुकसान होगा। समता को भी विविधता का सम्मान करना चाहिए। इनमें से किसी एक को आदर्श मानकर दूसरे पर थोपने के खतरे भी हैं। पर उसी के साथ यह भी सही है कि इक्कीसवीं सदीं में हर समाज की स्त्रियां अपने हक के लिए खड़ी हो रही हैं। ये आंदोलन बराबरी की किस सतह पर जाकर विश्राम करेंगे या कौन सा शिखर छूएंगे यह तो समय ही बताएगा।


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