रविवार, 10 अक्टूबर 2010

स्कूल हैं कि सीखते नहीं

काम जरा मुशकिल है, लेकिन इसी जाड़े की किसी ठंडी सुबह थोड़ी सी हिम्मत दिखाएं। शाल, मफलर, टोपी वगैरह जो कुछ भी है सब कुछ लपेटिये और सुबह छह बजे घर से बाहर आ जाएं। अगर इतवार नहीं है तो आपको वहां चार बरस या उससे ज्यादा उम्र के बच्चे स्कूल की बस का इंतजार करते मिल जाएंगे। अब आप चाहें तो इन बच्चों की हिम्मत को दाद दे सकते हैं, या फिर स्कूलों के बेदर्द रवैये को लानत। लेकिन इससे आगे आप कुछ नहीं कर सकते। आप क्या इनके आगे तो सरकार भी बेबस है। कोहरे में लिपटी सुबह की ठंड में जब बड़े लोग रजाई में करवट बदलने से भी घबराते हैं, इन बच्चों को हाथ मुंह धोकर, तैयार होकर घर से निकलना ही पड़ता है। बच्चों को यह मजबूरी देने वाले स्कूलों के पास बहुत सारे बहाने हैं- सिलेबस पूरा होना जरूरी है, पहले ही बहुत छुट्टियां हो गई, एक्जाम का टाइम है तो बच्चों को तो आना ही पड़ेगा। ये स्कूल टाइम आगे नहीं बढा़ सकते, सेशन थोड़ा सा खिसका नहीं सकते, यानी बच्चों पर हो रहे इस अत्याचार का पूरे समाज के पास कोई विकल्प नहीं है।

क्या स्कूल व्यवस्था के नाम पर हमने कुलजमा ऐसी स्थितियां रच ली हैं कि उनके गुलाम बने रहने के अलावा कोई चारा नहीं? किसी भी स्वस्थ समाज से हम यह उम्मीद करते हैं कि वह बदलते हालात में जीवन को पहले से ज्यादा सुखद बनाने के विकल्प ढूंढेगा। लेकिन हम क्यों नहीं ढूंढ पाते? और हां, इस विकल्प को खोजने के लिए किसी अतिरिक्त बजट या संसाधन की भी जरूरत नहीं है। जिस समाज में इतना छोटा सा समाधान मौजूद न हो उससे यह उम्मीद कैसे की जाए कि वहां सभी गरीबों के लिए अलाव और कंबल वगैरह की व्यवस्था हो सकेगी।

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